इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम
इक एक कर के टूट गईं निस्बतें तमाम
आओ, तो फिर फ़साना भी ये अब करें तमाम
ये कौन सा मक़ाम रिफ़ाक़त का है, जहाँ
गुम फ़ासलों में होने लगीं क़ुर्बतें तमाम
ज़ंजीर कोई रोक न पाएगी अब हमें
अब के जुनून तोड़ चुका है हदें तमाम
मज़लूम भी हमीं हैं, ख़तावार भी हमीं
रख दो हमारी जान पे ही तोहमतें तमाम
यादों की सरज़मीं पे वो तूफाँ उठा, कि बस
इक एक कर के खुलने लगी हैं तहें तमाम
आईने में जो ख़ुद से मुलाक़ात मैं करूँ
क़िस्से हज़ार कहती रहें सलवटें तमाम
दे कर गया है कर्ब-ओ-अज़ीयत हज़ारहा
नज़राना लें ही क्यूँ, उसे लौटा न दें तमाम?
फलते रहेंगे फिर भी मोहब्बत के कुछ शजर
"हालांकि वक़्त खोद चुका है जड़ें तमाम"
जिस पर पड़े वो जाने कि होता है दर्द क्या
"मुमताज़" रहने दीजिये ये मंतकें तमाम
निस्बतें – संबंध, तमाम – सब, तमाम – ख़त्म, फ़साना – कहानी, रिफ़ाक़त – साथ, क़ुर्बतें – नज़दीकियाँ, मज़लूम – पीड़ित, ख़तावार – अपराधी, तोहमतें – झूठे इल्ज़ाम, कर्ब-ओ-अज़ीयत – दर्द और तकलीफ़, शजर – पेड़, मंतकें – दलीलें
ik ek kar ke
toot gaiN nisbateN tamaam
aao, to phir
fasaana bhi ye ab kareN tamaam
ye kaun sa
maqaam rifaaqat ka hai, jahaN
gum faasloN
meN hone lagiN qurbateN tamaam
zanjeer koi
rok na paaegi ab hameN
ab ke junoon
tod chuka hai hadeN tamaam
mazloom bhi
hamiN hain, khatawaar bhi hamiN
rakh do
hamaari jaan pa hi tohmateN tamaam
yaadoN ki
sarzameeN pa wo toofaaN utha, ke bas
ik ek kar ke
khulne lagi haiN taheN tamaam
aaine meN jo
khud se mulaaqaat maiN karuN
qisse hazaar
kehti raheN salwateN tamaam
de kar gaya
hai karb-o-azeeat hazaarhaa
nazraana leN
hi kyuN? use lauta na deN tamaam?
phalte
rahenge phir bhi mohabbat ke kuchh shajar
"halaanke
waqt khod chuka hai jadeN tamaam"
jis par
pade, wo jaane ke hota hai dard kya
"Mumtaz"
rehne dijiye ye mantaqeN tamaam
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