बहार फिर से ख़िज़ाओं में आज ढलने लगी


बहार  फिर  से  ख़िज़ाओं  में  आज  ढलने  लगी
अभी  खिले  भी    थे  गुल, कि रुत  बदलने  लगी

ये  रतजगों  का  सफ़र  और  कब  तलक  आख़िर
कि  अब  तो  शब  की सियाही  भी  आँख  मलने  लगी

ये  बर्फ़  बर्फ़  में  चिंगारियां  सी  कैसी  हैं
ये  सर्द  रुत  में  फिज़ा  दिल  की  क्यूँ  पिघलने  लगी

जो  इल्तेफात  की  बारिश  ज़रा  हुई  थी  अभी
ये  आरज़ूओं  की  बूढी  ज़मीं  भी  फलने  लगी

दरून     जिस्म  कोई  आफ़ताब  है  शायद
चली  वो  लू  कि  तमन्ना  की  आँख  जलने  लगी

सफ़र  का  शौक़  जो  रक्साँ  हुआ , तो  यूँ  भी  हुआ
"ज़मीं  पे  पाँव  रखा  तो  ज़मीन  चलने  लगी”

फिर  एक  बार  ये  'मुमताज़ ' ज़ख्म  भरने  लगे
फिर  एक  बार  मेरी  ज़िन्दगी  संभलने  लगी
बहार= बसंत ऋतु, खिज़ां= पतझड़, गुल= फूल, शब= रात, सियाही= कालिख, फिजा= माहौल, इल्तेफात= मेहरबानी, आरज़ू= इच्छा, दरून जिस्म= बदन के अन्दर, आफताब= सूरज, तमन्ना= इच्छा,


بہار  پھر  سے  خزاؤں  میں  آج  ڈھلنے  لگی
ابھی  کھلے  بھی  نہ  تھے  گل , کہ   رت  بدلنے  لگی

یہ  رتجگوں  کا  سفر  جانے  کب  تلک  آخر 
کہ  اب  تو  شب  کی  سیاہی  بھی  آنکھ  ملنے  لگی

یہ  برف  برف  میں  چنگاریاں  سی  کیسی  ہیں
یہ  سرد  رت  میں  فضا  دل  کی  کیوں  پگھلنے  لگی

جو  التفات  کی  بارش  ذرا  ہوئی  تھی  ابھی
یہ  آرزوؤں  کی  بوڑھی  زمیں  بھی  پھلنے  لگی

درون_ جسم  کوئی  آفتاب  ہے  شاید
چلی  وہ  لو  کی  تمنا  کی  آنکھ  جلنے  لگی

سفر  کا  شوق  جو  رقصاں  ہوا تو  یوں  بھی  ہوا
"زمیں پہ  پاؤں  رکھا  تو  زمین  چلنے  لگی"

پھر  ایک  بار  وہ  'ممتاز ' زخم  بھرنے  لگے
پھر  ایک  بار  مری  زندگی  سمبھلنے  لگی

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