दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी
दिल की महरूमी फ़िज़ा में जो भर गई होगी
रात अपनी ही सियाही से डर गई होगी
कैसे आते भी नज़र ज़ेर-ओ-बम ज़माने के
ख़्वाब की धुंद निगाहों में भर गई होगी
छोड़ आई थी उसे मैं प ज़िन्दगी फिर भी
जुस्तजू में तो मेरी दर ब दर गई होगी
क़तरे क़तरे को तरसती वो प्यास उकता कर
सब्र का पी के पियाला वो मर गई होगी
छोड़ दी होगी उसी राह पे पहचान मेरी
ज़िन्दगी मुझ पे ये अहसान कर गई होगी
जिस को देखा ही नहीं हम ने ख़ुदपरस्ती में
दूर तक साथ वही चश्म-ए-तर गई होगी
तुम को कतरा के गुज़र जाने का फ़न आता था
आख़िरश सारी ख़ता मेरे सर गई होगी
मैं ने दिल तक की हर इक राह बंद कर दी थी
सोचती हूँ कि तमन्ना किधर गई होगी
वक़्त ने तोड़ दिया होगा ग़ुरूर-ए-हस्ती
मेरी “मुमताज़” वो ग़ैरत भी मर गई होगी
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