है इंतज़ार अना को, मगर नहीं होता
है इंतज़ार अना को, मगर नहीं होता
कोई भी दाँव कभी कारगर नहीं होता।
हक़ीक़तें कभी आँखों से छुप भी सकती हैं
हर एक अहल-ए-नज़र दीदावर नहीं होता
गुनह से बच के गुज़र जाना जिस को आ जाता
तो फिर फ़रिश्ता वो होता, बशर नहीं होता
हज़ार बार ख़िज़ाँ आई दिल के गुलशन में
ये आरज़ू का शजर बेसमर नहीं होता
हयात लम्हा ब लम्हा गुज़रती जाती है
हयात का वही लम्हा बसर नहीं होता
बिसात-ए-हक़ प गुमाँ की न खेलिए बाज़ी
यक़ीं की राह से शक का गुज़र नहीं होता
बचा भी क्या है मेरी ज़ात के ख़ज़ाने में
कि बेनवाओं को लुटने का डर नहीं होता
भटकते फिरते हैं “मुमताज़” हम से ख़ानाबदोश
हर एक शख़्स की क़िस्मत में घर नहीं होता
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