यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर
यास की मलगुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर
याद ने तोड़ दिया होगा अना का भी ग़ुरूर
ज़ह्न से पोंछ दिया उस का हर इक नक़्श-ओ-निगार
आख़िरश कर ही लिया आज ये दरिया भी उबूर
राहज़न वक़्त ने बहका के हमें लूट लिया
न मोहब्बत की ख़ता थी, न जफ़ाओं का क़ुसूर
फिर कहीं ऐसा न हो, तेरी ज़रूरत न रहे
फिर न इस सर से उतर जाए रिफ़ाक़त का सुरूर
तीरगी फैल गई फिर से निगाहों में कि बस
एक लम्हे को हुआ दिल में तमन्ना का ज़हूर
तालिब-ए-ज़ौक़-ए-समाअत है हमारी भी सदा
एक फरियाद लिए आए हैं हम तेरे हुज़ूर
आज फिर हिर्स से दानाई ने खाई है शिकस्त
जाल में फिर से फ़रेबों के उतर आए तुयूर
इस नई नस्ल की क़दरों का ख़ुदा हाफ़िज़ है
कोई बीनाई का ढब है न समाअत का शऊर
वो सुने या न सुने, बोझ तो हट जाएगा
आज “मुमताज़” उसे हाल तो कहना है ज़रूर
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