ज़ुल्म का दिल भी आलम से तार होना चाहिए
ज़ुल्म का दिल भी आलम से तार होना चाहिए
तेज़ इतनी तो लहू की धार होना चाहिए
तू जो मुख़लिस है तो दुनिया समझेगी पागल तुझे
दौर-ए-हाज़िर में ज़रा ऐयार होना चाहिए
हर तरफ़ मतलब परस्ती, रहज़नी, हिर्स-ओ-हवस
अब तो बेज़ारी का कुछ इज़हार होना चाहिए
खाए जाते हैं वतन को चंद इशरत के ग़ुलाम
अब किसी सूरत हमें बेदार होना चाहिए
जी लिए अब तक बहुत मर मर के लेकिन दोस्तो
हम को अब कल के लिए तैयार होना चाहिए
क्या मज़ा चलने का गर राहों में पेच-ओ-ख़म न हों
रास्ता थोड़ा बहुत दुश्वार होना चाहिए
नाम पर मज़हब के अब काफ़ी सियासत हो चुकी
अब तअस्सुब का क़िला मिस्मार होना चाहिए
कब तलक “मुमताज़” बैठें धर के हम हाथों प हाथ
इंकेसारी छोड़, अब यलग़ार होना चाहिए
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