छूटूँ तो कशमकश से किसी पल ख़ुदा करे
छूटूँ तो कशमकश से किसी पल ख़ुदा करे
आख़िर इलाज-ए-ज़ीस्त करे तो क़ज़ा करे
गाड़े हैं दिल में याद ने पंजे कुछ इस तरह
सीने में दर्द रोज़-ओ-शबाना उठा करे
साँसें भी दिल प रक्खी हैं इक बोझ की तरह
कैसे कोई ये क़र्ज़ करे तो अदा करे
कैसी ये तश्नगी है कि मिटती नहीं कभी
सीने में कैसी आग सी हर पल जला करे
सीने में कैसी आग सी हर पल जला करे
कैसी चली है रस्म-ए-फ़रेब-ए-वफ़ा कि अब
जो भी मिले वो चेहरा बदल कर मिला करे
अब क्या करें कि दिल तो सुकूँ से भी भर गया
हंगामा कोई अब तो तबाही बपा करे
मुद्दत से हसरतें भी बड़ी सोगवार हैं
दिल की भी आरज़ू है कि कोई ख़ता करे
पहरे हैं लफ़्ज़ लफ़्ज़ पे, है क़ैद में ज़ुबाँ
“मुमताज़” अब कलाम की हसरत भी क्या करे
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