ज़हन-ओ-दिल में था, मगर रूह में शामिल होता
ज़हन-ओ-दिल में था, मगर रूह में शामिल होता
मेरा सरमाया वही जज़्बा-ए-कामिल होता
मैं कशाकश के अज़ाबों से न गुज़री होती
काश दिल मेरा तेरे अज़्म से ग़ाफ़िल होता
तोड़ने लगती अगर रूह ये ज़ंजीर-ए-हयात
साँस की लय प ये दिल रक़्स पे माइल होता
जुस्तजू में कभी मुझ तक भी वो आता यारब
मेरा दिल भी तो कभी हासिल-ए-मंज़िल होता
बेवफाई की सियाही से जो होता रौशन
मुझ में ऐ काश वो इक रंग भी शामिल होता
इक ज़रा दर्द का अंदाज़ा उसे भी होता
मैं जो टूटी थी तो वो भी ज़रा बिस्मिल होता
देना पड़ता तुझे हर एक तबाही का हिसाब
ऐ मुक़द्दर तू कभी मेरे मुक़ाबिल होता
खेलती रहती हूँ तूफ़ानों से लेकिन “मुमताज़”
क्या बुरा था जो मेरा भी कोई साहिल होता
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