आँखें झुका के और कभी मुँह फुला के हम
आँखें झुका के और कभी मुँह फुला के हम
सहते हैं कैसे कैसे सितम दिलरुबा के हम
करना भी चाहें बात, अकड़ना भी चाहें वो
मुश्किल से रोकते हैं हँसी मुँह दबा के हम
खाता है बैठे बैठे निकम्मा दबा के माल
पछताए सौ हज़ार उसे मुँह लगा के हम
पूछी हमारे इश्क़ की उस ने जो इंतेहा
बस सोचते ही रह गए सर को खुजा के हम
चूना लगाने वालों में माहिर जो थे “मुमताज़”
आज आ गए हैं उन को भी चूना लगा के हम
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