माज़ी की गलियाँ


कल माज़ी की गलियों में भटकते भटकते अचानक मेरी मुलाक़ात ख़ुद से हो गई। बरसों के बिछड़े थे....मिले तो आँखें भर आईं। न जाने कितनी ही यादें ज़हन के झरोखों से निकल कर पलकों की शाख़ों पर आ बैठीं। दिल पर वो बारिशें एक बार फिर बरस गईं जिन की बौछारों में तन के साथ साथ मन भी भीग जाया करता था। सुरमंडल के तारों को छेड़ते हुए दिल जब झूम उठता था तो गीत ख़ुद ब ख़ुद होंटों पर मचल जाते थे।
सफ़र शुरू हुआ तो माज़ी के तमाम गलियारों की सैर कर आई मैं.....
बचपन के तमाम संगी साथी एक एक कर के दिल पर दस्तक देते रहे....दुनिया जहान की फ़िक्र से आज़ाद, अपनी ही मस्ती में मस्त, अपने ही ख़यालों में गुम वो लड़की, ब्रुश, क़लम और संगीत जिस के हर लम्हे के साथी थे....आज ज़िंदगी की जाने किस क़ब्र से निकल कर सामने आ खड़ी हुई.....और मैं हैरत ज़दा सी उस में ख़ुद को तलाश करती रही.....और जब नज़ारा धुँधला होता गया तब एहसास हुआ, जाने कब मेरी आँखों में अशकों के दो क़तरे तैर आए थे.....और फिर देखते ही देखते वो माज़ी के अँधेरों में  ग़र्क़ होती चली गई......
अब सोच रही हूँ.....यह कैसा ख़्वाब था, आईने के सामने खड़ी अपने अक्स में उस लड़की को तलाश कर रही हूँ, लेकिन वो चेहरा अब अजनबी सा लग रहा है। उफ़्फ़....कहाँ चली गई वो मुमताज़....काश....एक बार फिर उस से मुलाक़ात हो जाए....

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