उन की मर्ज़ी जो मोहब्बत को अता कहते हैं
उन की मर्ज़ी जो मोहब्बत को अता
कहते हैं
हम तो मजबूर तमन्ना को वफ़ा कहते
हैं
ज़ीस्त ही जब कि सरासर हो अज़ीयत
तो फिर
मौत को भी ग़म-ए-हस्ती की दवा कहते
हैं
खाक को सर पे उठाए जो फिरा करते
हैं
क्या अजब लोग हैं मिट्टी को ख़ुदा
कहते हैं
कहने वालों को तो कुछ चाहिए कहने
के लिए
क्या हुआ जो हमें कुछ लोग बुरा
कहते हैं
अपनी ठोकर पे रहा सारे ज़माने का
निज़ाम
हम फ़क़ीरों का है अंदाज़ जुदा, कहते हैं
ज़िन्दगी से भी नहीं सब को मोहब्बत
यारो
साँस लेने को भी कुछ लोग सज़ा कहते
हैं
आज कह डाली है हर तल्ख़ हक़ीक़त उन
से
देखना ये है कि "मुमताज़"
वो क्या कहते हैं
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