अपनी ज़ात का फिर इक ज़ाविया नया देखूँ
अपनी ज़ात का फिर इक ज़ाविया नया देखूँ
बुझती आग में रौशन फिर कोई शुआ देखूँ
ग़ालिबन नज़र आए साफ़ साफ़ हर मंज़र
असबियत का ये पर्दा अब ज़रा हटा देखूँ
मैं अना का ख़ूँ कर के अब भी लौट तो आऊँ
मुंतज़िर तो हो कोई, कोई दर खुला देखूँ
ज़ात ओ नस्ल कुछ भी हो ख़ून लाल ही होगा
तेरे रंग से अपना रंग आ मिला देखूँ
कहते हैं हुकूमत को इन्क़ेलाब खाता है
आग फिर ये भड़की है आज फिर मज़ा देखूँ
भूक, जुर्म, दहशत का मैल है
जमा इस पर
खुल गई हक़ीक़त अब मैं जहाँ में क्या देखूँ
अब मुझे सुना ही दे क्या है फैसला तेरा
और अब कहाँ तक मैं तेरा रास्ता देखूँ
मेरे अक्स में किस का अक्स ये दिखाई दे
"बेख़ुदी के आलम में जब भी आईना देखूँ"
बोलती निगाहों में अनगिनत फ़साने हैं
ख़ुद प मैं रहूँ "नाज़ाँ" जब भी आईना देखूँ
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