ज़िंदा दिली ने ढूँढी है हम में ही आस भी
ज़िंदा दिली ने ढूँढी है हम में ही आस भी
हम को पुकारा करती है माज़ी से यास भी
क्या क्या बहा के ले गया सैलाब वक़्त का
धुंधला गई नज़र भी, ख़ता हैं हवास भी
ये बहर-ए-बेकराँ भी हमें कुछ न दे सका
थक कर बदन है चूर, है शिद्दत की प्यास भी
तू ही जला नहीं है तमन्ना की आग में
मेरे लहू से लाल है मेरा लिबास भी
पढ़ते रहे हैं पूरी तवज्जह के साथ हम
तक़दीर की किताब का ये इक़्तेबास भी
ले आई है कहाँ ये तमन्ना हमें, कि दिल
थोड़ा सा मुतमइन भी है, थोड़ा उदास भी
आया वो ज़लज़ला कि ज़मीन-ए-हयात में
"मुमताज़" हिल
गई मेरी पुख़्ता असास भी
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