पहचान


न जाने कौन हूँ
क्या चाहती हूँ मैं

भरम के धागों से तख़ईल का कमख़्वाब बुनती हूँ
तमन्नाओं के रेशम से हज़ारों ख़्वाब बुनती हूँ
ख़यालों की ज़मीं पर इक नई दुनिया बनाती हूँ
वहाँ वहम-ओ-गुमाँ की फिर नई बस्ती बसाती हूँ

वो सब धागे भरम के ख़ुद ही मैं फिर तोड़ देती हूँ
तमन्नाओं के ख़्वाबों को अधूरा छोड़ देती हूँ
हर इक वहम-ओ-गुमाँ को अपने हाथों क़त्ल करती हूँ
हर इक ख़िश्त-ए-तसव्वर को गिरा कर फोड़ देती हूँ

तसव्वर के परों पर मैं जहाँ की सैर करती हूँ
मुक़ाबिल रख के आईना मोहब्बत का सँवरती हूँ
उतर जाती हूँ फिर ख़ुद ही सियहख़ानों में बातिन के
कुरेदा करती हूँ मैं ज़ख़्म सारे रूह-ए-साकिन के

मसर्रत की रिदा से दाग़ अश्कों के छुपाती हूँ
जो अपने दिल की आतिश को हवा दे कर जलाती हूँ
पिघल जाती हूँ ख़ुद ही, फिर नए पैकर में आती हूँ
मैं ख़ुद को तोड़ती हूँ बारहा और फिर बनाती हूँ

न जाने कितने नक़्शे ज़ह्न के पर्दे प बनते हैं
तलातुम जाने कितने रोज़ आँखों में उफनते हैं
कहीं हैं नूर के झुरमुट, कहीं गहरा अँधेरा है  
ख़यालों के हर इक गोशे पे सौ यादों का डेरा है

ज़का महदूद है हर आन बीनाई के हाथों में
बड़ी मजबूर हूँ अपनी शनासाई के हाथों में
कहीं बचपन के आँगन में, कहीं दर पर जवानी के
वरक़ बिखरे पड़े हैं मेरी नागुफ़्ता कहानी के
उठाती फिर रही हूँ मैं, बिखरते जा रहे हैं ये
न जाने मुझ में कितना दर्द भरते जा रहे हैं ये
तख़ईल – विचार, कमख़्वाब – brocade, तमन्नाओं के – इच्छाओं के, ख़्वाब – सपना, ख़िश्त – ईंट,  तसव्वर – कल्पना, सियहख़ानों में – अंधेरे कमरों में, बातिन – अपने अंदर, रूह – आत्मा, साकिन – अकेली, मसर्रत – ख़ुशी, रिदा – चादर, आतिश – आग, पैकर – रूप, बारहा – बार बार, ज़ह्न – दिमाग़, तलातुम – लहरों की तेज़ी, नूर – उजाला, गोशे – कोने, ज़का अक़्लमंदी, महदूद – सीमित, आन – पल, बीनाई – दृष्टि, शनासाई – पहचान, वरक़ – पन्ना, नागुफ़्ता – अनकही।

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