कितनी मैली हुई आदमी की ज़ुबाँ


कितनी  मैली  हुई  आदमी  की  ज़ुबाँ
क्यूँ  फिसल  जाती  है  अब  सभी  की  ज़ुबाँ

अपनी  हस्ती  का  कुछ  फ़ैसला  भी  तो  हो
जाने  कब  तक  खुले  आगही  की  ज़ुबाँ 

उस  की  आँखों  में  तो  दर्ज  था  सब  मगर
दिल  को  आती    थी  बेरुख़ी  की  ज़ुबाँ 

कजकुलाही  तक़ाज़ा  है  इस  दौर  का
काट  लेते  हैं  अब  आजिज़ी  की  ज़ुबाँ 

सहबा  लम्स  में  वो  असर  था  के  बस
लडखडाने  लगी  बेख़ुदी  की  ज़ुबाँ

इस  को  'मुमताज़ " हर  नस्ल  दोहराएगी
मेरा  हर  लफ़्ज़  है  इक  सदी  की  ज़ुबाँ

आगही= भविष्यफल, कजकुलाही =  टेढापन, आजिज़ी= ख़ाकसारी, सहबा= शराब, लम्स= स्पर्श, बेख़ुदी= होश रहना, हलावत= मिठास.

کتنی  میلی  ہی  آدمی  کی  زباں
کیوں  پھسل  جاتی  ہے  اب  سبھی  کی  زباں

اپنی  ہستی  کا  کچھ  فیصلہ  بھی  تو  ہو
جانے  کب  تک  کھلے  آگہی  کی  زباں  

اس  کی  آنکھوں  میں  تو  درج  تھا  سب  مگر
دل  کو  آتی  نہ  تھی  بےرخی  کی  زباں 

کج کلاہی  تقاضہ  ہے  اس  دور  کا
کاٹ  لیتے  ہیں  اب  عاجزی  کی  زباں 

صہبا ے لمس  میں  وہ  اثر  تھا  کے  بس
لڑکھڑانے  لگی  بیخودی  کی  زباں

ہے  حلاوت  گھلی  اس  میں  اردو  کی  جو
" کس  قدر  ہے  حسیں  شاعری  کی  زباں "

اس  کو  'ممتاز " ہر  نسل  دوہرایگی 
میرا  ہر  لفظ  ہے  اک  صدی  کی  زباں

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते