छोड़ती हैं तुंद लहरों पर निशानी कश्तियाँ
छोड़ती हैं तुंद लहरों पर निशानी कश्तियाँ
करती हैं तुग़ियानियों की मेज़बानी कश्तियाँ
अलग़रज़ मौजों से लड़ना फ़र्ज़ ठहरा है मगर
टूटे हैं पतवार अपने, हैं पुरानी कश्तियाँ
हो कोई इन में शनावर भी, कोई लाज़िम है क्या
पार ले जाएँगी इन को ख़ानदानी कश्तियाँ
अब चलेंगी इस सियासत के समंदर में जनाब
इंतेख़ाबी रुत में यारों की लिसानी कश्तियाँ
हर लहर पर जीत की इक दास्ताँ लिखती चलें
सागरों से खेलती हैं जाविदानी कश्तियाँ
बारहा यूँ भी हुआ है साहिलों के आस पास
डूब जाएँ डगमगा कर नागहानी कश्तियाँ
फिर हुआ बेदार इक आवारगी का सिलसिला
फिर बुलाती हैं हमें वो बादबानी कश्तियाँ
रतजगों का ये समंदर सर भी करना है अभी
और फिर “मुमताज़” हम को हैं जलानी कश्तियाँ
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