ग़ज़ल - कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था



कभी चेहरा ये मेरा जाना पहचाना भी होता था
हमारे बीच पहले एक याराना भी होता था
کبھی چہرا یہ میرا جانا پہچانا بھی ہوتا تھا
ہمارے بیچ پہلے ایک یارانہ بھی ہوتا تھا

यही काफ़ी कहाँ था, तेरे आगे सर झुका देते
हमें दुनिया के लोगों को तो समझाना भी होता था
یہی کافی کہاں تھا، تیرے آگے سر جھکا دیتے
ہمیں دنیا کے لوگوں کو تو سمجھانا بھی ہوتا تھا

शिकम की आग में जलना तो फिर आसान था यारो
मगर दो भूके बच्चों को जो बहलाना भी होता था
شکم کی آگ میں جلنا تو پھر آسان تھا یارو
مگر دو بھوکے بچوں کو جو بہلانا بھی ہوتا تھا

गुज़र कर बारहा तूफ़ान-ए-यास-ओ-बदनसीबी से
फ़रेब-ए-ज़िन्दगी दानिस्ता फिर खाना भी होता था
گذر کر بارہا طوفانِ یاس و بدنصیبی سے
فریبِ زندگی دانستہ پھر کھانا بھی ہوتا تھا

धरम और ज़ात के हर दाग़ से जो पाक था यारो
रह-ए-दैर-ओ-हरम में एक मैख़ाना भी होता था
دھرم اور ذات کے ہر داغ سے جو پاک تھا یارو
رہِ دیروحرم میں ایک میخانہ بھی ہوتا تھا

किए थे बारहा सजदे जमाल-ए-रू-ए-जानाँ को
इसी दिल में मोहब्बत का वो बुतख़ाना भी होता था
کیۓ تھے بارہا سجدے جمالِ روۓجاناں کو
یسی دل میں محبت کا وہ بتخانہ بھی ہوتا تھا

फ़सीलें उन हवादिस ने दिलों में खेंच डाली थीं
हर इक आबाद घर में एक वीराना भी होता था
فصیلیں ین حوادث نے دلوں میں کھینچ ڈالی تھیں
"ہر اک آباد گھر میں ایک ویرانہ بھی ہوتا تھا"

तुम्हें मुमताज़ की अब याद हो चाहे न हो लेकिन
कभी दुनिया के लब पर अपना अफ़साना भी होता था
تمہیں ممتازؔ کی اب یاد ہو چاہے نہ ہو لیکن
کبھی دنیا کے لب پر اپنا افسانہ بھی ہوتا تھا

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