कहने को इक हुजूम है, अपना नहीं कोई
कहने
को इक हुजूम है, अपना नहीं कोई
इंसाँ
का आज इंसाँ से रिश्ता नहीं कोई
अब
यादगार-ए-दौर-ए-गुज़िश्ता नहीं कोई
सीने
में अब तो ज़ख़्म भी सजता नहीं कोई
दर्द-ए-ग़म-ए-हयात
का चारा नहीं कोई
तारीक
रात और सितारा नहीं कोई
शायद
ग़म-ए-हयात से तंग आ चुका था वो
यूँ
मुफ़्त अपनी जान तो देता नहीं कोई
बच्चों
की आस, माँ की तड़प हारने लगी
चूल्हे
में अब वहम का शरारा नहीं कोई
सब
ही मक़ीम बस्ती के शायद हुए तमाम
अब
तो यहाँ मकान भी जलता नहीं कोई
इंसानियत
सिसकती है, बेहिस है आदमी
अब
कोई हादसा हो, दहलता नहीं कोई
घर
लुट चुके हैं, सू-ए-फ़लक देखते हैं सब
ग़म
की ये इंतेहा है कि रोता नहीं कोई
ये
ज़लज़ले की साअतें, तूफ़ान का ये क़हर
है
ख़ौफ़ का ये हाल कि सोता नहीं कोई
दिल
है कि है फफोला तपक जाता है अक्सर
नश्तर
भी दिल पे अब तो लगाता नहीं कोई
ये
कर्ब बेहिसी का कहीं जान न ले ले
मुद्दत
से दिल में दर्द भी जागा नहीं कोई
दौर-ए-जदीद, मक्र-ओ-ख़ुदी-ओ-बरहनगी
“मुमताज़” इस मरीज़ का चारा नहीं कोई
दौर-ए-गुज़िश्ता
–
बीटा हुआ वक़्त, चारा – इलाज, तारीक – अँधेरी, शरारा – अंगारा, मक़ीम – निवासी, बेहिस – भावना शून्य, सू-ए-फ़लक
– आसमान की तरफ़, इंतेहा – ज़ियादती, ज़लज़ले की साअतें – भूकंप
की घड़ियाँ, क़हर – ग़ुस्सा, कर्ब – तकलीफ, दौर-ए-जदीद – आधुनिक काल, मक्र – मक्कारी, ख़ुदी – ख़ुदग़रज़ी, बरहनगी – नग्नता
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