हस्ती बिखर गई है
दिल-ए-शिकस्ता
के टूटे टुकड़ों में बँट के हस्ती बिखर गई है
ख़ुद
अपनी ही ज़ात के अँधेरों में मेरी हस्ती उतर गई है
ये
ज़ीस्त का बेकराँ समंदर, कई तलातुम निहाँ हैं अंदर
लड़ी
है मौजों से जो बराबर तो अब ये कश्ती बिखर गई है
ज़मीन-ए-सहरा
ने है संभाला ग़म-ए-हवादिस ने इसको पाला
अज़ाब-ए-हस्ती
में जब है ढाला तो हर तमन्ना निखर गई है
ये
दोस्तों की इनायतें हैं, क़रीब रह कर भी फ़ासले हैं
जुदा
जुदा सारे रास्ते हैं, ये उम्र-ए-रफ़्ता किधर गई है
हमारी
हस्ती थी क्या मिसाली थी अपनी हर बात कल निराली
मगर
दिल-ओ-ज़हन अब हैं ख़ाली, है ज़िन्दा तन, रूह मर गई है
वो
बेकराँ लम्हा-ए-मोहब्बत था जिसमें आलम, वो एक साअत
अभी
तलक ज़िन्दा है वो लज़्ज़त, वहीं ये हस्ती ठहर गई है
हमीं
जहाँ से गुज़र गए हैं कि दिल के जज़्बात मर गए हैं
कि
ज़ख़्म सारे ही भर गए हैं कि रूह भी अबके मर गई है
अजीब
आलम में अब ये दिल है कि बेहिसी अब तो मुस्तक़िल है
हर
आरज़ू नज़्र-ए-ख़ून-ए-दिल है कि हश्र से जैसे डर गई है
जो
अब हैं “मुमताज़” चंद लम्हे इन्हें तो जीने की आरज़ू है
कहाँ
वो अंदाज़ ज़िन्दगी के, हयात की चाह मर गई है
दिल-ए-शिकस्ता
–
टूटा हुआ दिल, ज़ीस्त – ज़िन्दगी, बेकराँ – अथाह, तलातुम – तूफ़ान, निहाँ – छुपा हुआ, सहरा – रेगिस्तान, ग़म-ए-हवादिस
– हादसों का दुख, अज़ाब-ए-हस्ती – ज़िन्दा होने की तकलीफ़, उम्र-ए-रफ़्ता – बीती हुई उम्र, मिसाली – मिसाल
देने क़ाबिल, बेहिसी – भावना शून्यता, मुस्तक़िल – लगातार
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