ये माना, बेरुख़ी हम से यूँ ही फ़रमाओगे साहब
ये
माना, बेरुख़ी हम से यूँ ही फ़रमाओगे साहब
अकेले
में मगर ग़ज़लें हमारी गाओगे साहब
ये
किसकी खोज में चोरी छुपे नज़रें भटकती है
कोई
जो पूछ बैठा, क्या उसे बतलाओगे साहब
ये
माना, हम तुम्हारी राह में दीवार हैं, लेकिन
हमें
ढा दोगे तो साया कहाँ फिर पाओगे साहब
हमारे
दर्द का शायद तुम्हें तब होगा अंदाज़ा
जो
तुम भी तीर कोई अपने दिल पर खाओगे साहब
अभी
तो कर रहे हो तुम बहुत तनहाई की ख़्वाहिश
करोगे
क्या जो तनहाई में भी घबराओगे साहब
ये
बेपरवाई, ये बेमेहरियाँ, ये बेरुख़ी पैहम
तड़प
जाओगे तुम भी जो हमें तड़पाओगे साहब
जहाँ
है ख़ुदग़रज़ ये क्या तुम्हारे नाज़ उठाएगा
ये
तेवर कजअदाई के किसे दिखलाओगे साहब
सता
कर हमको ख़ुश हो लो, मगर जब हम नहीं होंगे
हमेशा
वाहमों से ख़ुद को फिर बहलाओगे साहब
चलो, हम तो बिलआख़िर कर ही
लेंगे तर्क-ए-उलफ़त भी
ये
फिर कहते हैं हम, देखो, बहुत पछताओगे साहब
तअल्लुक़
तो क़तअ कर ही चुके हो, ये भी बतला दो
ये
लाश उजड़ी मोहब्बत की कहाँ दफ़नाओगे साहब
बहार
आएगी गुलशन में हमारे बाद भी लेकिन
खिलेंगे
फूल गुलशन में तो तुम कुम्हलाओगे साहब
चले
तो जा रहे हो रूठ कर पर ये भी सोचा है?
कहाँ
से ढूँढ कर “मुमताज़” को फिर लाओगे साहब
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