हमारी काविशों की एक दिन यूँ आबरू होगी
हमारी
काविशों की एक दिन यूँ आबरू होगी
मोहब्बत
सर झुकाएगी तमन्ना बावज़ू होगी
है
इतनी बेकराँ, फैली हुई है सारे आलम में
जहाँ
हम तुम नहीं होंगे वहाँ भी आरज़ू होगी
फ़ना
कर के हमें चेहरा छुपाती फिर रही है वो
हम
उसका हाल पूछेंगे जो हसरत रू ब रू होगी
किसी
सूरत हमारी सल्तनत होगी ज़माने में
यहाँ
जब हम नहीं होंगे, हमारी जुस्तजू होगी
ये
ज़हन-ए-मुंतशिर, ये ज़ख़्मी दिल और वस्ल का वादा
ज़बाँ
मफ़्लूज है, क्या ख़ाक उनसे गुफ़्तगू होगी ?
मिले
तो हम मिलेंगे अब मोहब्बत के जनाज़े पर
अना
की धज्जियों से दिल की हर हसरत रफ़ू होगी
तसव्वर
भी, तफ़क्कुर भी, अना भी, आज़माइश भी
वहाँ
कोई न पहुँचेगा जहाँ “मुमताज़” तू होगी
काविश
–
खोज, बावज़ू – वज़ू की हुई, बेकराँ – अथाह, रू ब रू – आमने सामने, जुस्तजू – तलाश, ज़हन-ए-मुंतशिर – बिखरा हुआ दिमाग़, वस्ल – मिलन, मफ़्लूज – लकवा ग्रस्त, गुफ़्तगू – बात चीत, तसव्वर – कल्पना, तफ़क्कुर – विचार शीलता, अना – अहं
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