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है अधूरा आदमीयत का निज़ाम

है अधूरा आदमीयत का निज़ाम हर बशर है आरज़ूओं का ग़ुलाम आज फिर देखा है उस ने प्यार से आज फिर दिल आ गया है ज़ेर-ए-दाम तोडना होगा तअस्सुब का ग़ुरूर है ज़रूरी इस नगर का इनहेदाम हाय रे एहल-ए-ख़िरद की चूँ -ओ-चीं वाह , ये दीवानगी का एहतेशाम थक गए हो क्यूँ अभी से दोस्तो बस , अभी तक तो चले हो चार गाम देखते हैं , आगही क्या दे हमें अब तलक तो आरज़ू है तशनाकाम आदमी की बेकराँ तन्हाइयाँ चार सू फैला हुआ ये अज़दहाम ज़िन्दगी से जंग अब हम क्या करें रह गई बस हाथ में ख़ाली नियाम एक भी अपना नज़र आता नहीं आ गया "मुमताज़" ये कैसा मक़ाम निज़ाम – सिस्टम , बशर – इंसान , ज़ेर-ए-दाम – जाल में , तअस्सुब – भेद-भाव , इनहेदाम – ढा देना , एहल-ए-ख़िरद – अक़्ल वाले , चूँ-ओ-चीं - नुक्ता चीनी , एहतेशाम – शान ओ शौकत , गाम – क़दम , आगही – ज्ञान , तशनाकाम – प्यासी , बेकराँ – अनंत , चार सू – चारों तरफ़ , अज़दहाम – भीड़ , नियाम – मियान

न जाने किस का ये दिल इंतज़ार करता है

हर एक शब जो सितारे शुमार करता है न जाने किस का ये दिल इंतज़ार करता है जो नोच लेता है शाख़ों से बाग़बाँ कलियाँ तड़प के आह-ओ-बुका ख़ार ख़ार करता है हमें यक़ीं है जो मेहनत की कारसाज़ी पर नसीब अपनी ख़ुशामद हज़ार करता है जले नहीं हैं जो घर उन को ये ख़बर कर दो हेरास का भी कोई कारोबार करता है हमेशा जागता रहता है मेरा ज़ेहन कि ये फ़रेब-ए-दिल से मुझे करता है जफ़ा शआर है “मुमताज़” मतलबी दुनिया वफ़ा का कौन यहाँ ऐतबार करता है शुमार करता है-गिनता है , आह-ओ-बुका-रोना चिल्लाना , ख़ार-काँटा , हेरास-डर , आशकार-आगाह , जफ़ा शआर-जिस का दस्तूर बेवाफ़ाई हो

अश्क आँखों में, तो हाथों में ख़ला रक्खे हैं

अश्क आँखों में , तो हाथों में ख़ला रक्खे हैं हम हैं दीवाने , मुक़द्दर को ख़फ़ा रक्खे हैं खौफ़ है , यास है , अंदेशा है , मजबूरी है ज़हन-ओ-दिल पर कई दरबान बिठा रक्खे हैं हक़ की इक ज़र्ब पड़ेगी तो बिखर जाएंगे दिल में हसरत ने सितारे जो सजा रक्खे हैं खुल गई जो तो बिखर जाएगी रेज़ा रेज़ा बंद मुट्ठी में शिकस्ता सी अना रक्खे हैं वो जो करते हैं , वो करते हैं दिखा कर मुझ को लाख रंजिश हो , मगर पास मेरा रक्खे हैं सब्र की ढाल प् शमशीर-ए-मुसीबत झेलो वो , कि तकलीफ़ के पर्दे में जज़ा रक्खे हैं बदगुमानी का तो शेवा ही यही है यारो हम को इस ने भी कई ख़्वाब दिखा रक्खे हैं अब कहाँ पहले सी "मुमताज़" वो शान-ओ-शौकत हो गए ख़ाक , मगर नाम बड़ा रक्खे हैं ख़ला- ख़ालीपन , यास- निराशा , ज़र्ब- चोट , शिकस्ता- टूटा फूटा , पास- खयाल , शमशीर- तलवार , जज़ा- नेकी का बदला , बदगुमानी- ग़लत फ़हमी , शेवा- दस्तूर

नज़्म- सवाल

एक बेटी ने ये रो कर कोख से दी है सदा मैं भी इक इंसान हूँ , मेरा भी हामी है ख़ुदा कब तलक निस्वानियत का कोख में होगा क़िताल बिन्त ए हव्वा पूछती है आज तुम से इक सवाल जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का क़त्ल आदमीयत काँप उठती है , लरज़ जाता है अद्ल देखती हूँ रोज़ क़ुदरत के ये घर उजड़े हुए ये अजन्मे जिस्म , ख़ाक ओ ख़ून में लिथड़े हुए देख कर ये सिलसिला बेचैन हूँ , रंजूर हूँ और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर आदमीयत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर कौन वो बदबख़्त हैं , इन्साँ हैं या हैवान हैं मारते हैं माओं को , बदकार हैं , शैतान हैं कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया जो अभी जन्मी नहीं थी , जुर्म क्या उस ने किया मर्द की ख़ातिर सदा क़ुर्बानियाँ देती रही माँ है आदमज़ाद की , क्या जुर्म है उस का यही ? वो अज़ल से प्यार की ममता की इक तस्वीर है पासदार ए आदमी