मुझ में दोज़ख़ सा ये जलता क्यूँ है
मुझ में दोज़ख़ सा ये जलता क्यूँ है ख़ून लावा सा उबलता क्यूँ है मुझ से इतनी जो अदावत है तुझे फिर मेरे साथ भी चलता क्यूँ है बारहा घुल के मेरा ज़ख़्मी वजूद नित नए सांचों में ढलता क्यूँ है है जो बेकार , तो लौटा दे मुझे दिल को पैरों से मसलता क्यूँ है आतिश-ए - दिल तो कब की सर्द हुई ये मेरा ज़हन पिघलता क्यूँ है कोई मौसम है हर इक रिश्ता क्या " वक़्त के साथ बदलता क्यूँ है " आरज़ू ' ओं का ये " मुमताज़ " शजर मर गया है तो ये फलता क्यूँ है مجھ میں دوزخ سا یہ جلتا کیوں ہے خون لاوا سا ابلتا کیوں ہے مجھ سے اتنی جو عداوت ٹھہری پھر مرے ساتھ بھی چلتا کیوں ہے بارہا ٹوٹ کر وجود مرا نت نئے سانچوں میں ڈھلتا کیوں ہے ہے جو بیکار , تو لوٹا دے مجھے دل کو پیروں سے مسلتا کیوں ہے آ