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हो गया दिल जो गिरफ़तार-ए-सितम आप से आप

हो गया दिल जो गिरफ़तार - ए - सितम आप से आप दिल में लेने लगे अरमान जनम आप से आप मोड़ वो आया तो कुछ देर को सोचा हम   ने उठ गए फिर तेरी जानिब को क़दम आप से आप इस क़दर तारी हुआ अब के मेरे दिल पे जमूद टूट कर रह गया ख़्वाबों का भरम आप से आप दर्द बढ़ता जो गया , दर्द का एहसास मिटा हो गए दूर सभी रंज ओ अलम आप से आप फ़ैसला तर्क - ए - त ' अल्लुक़ का लिखा था उस को और फिर टूट गया मेरा क़लम आप से आप अब्र कल रात उठा , टूट के बरसात हुई दिल के सेहरा की ज़मीं हो गई नम आप से आप मेरी मजबूर वफाओं का तक़ाज़ा था यही " उन का दर आया जबीं हो गई ख़म आप से आप " फ़ैसला होना है ' मुमताज़ ' मेरी क़िस्मत का रख दिया क्यूँ मेरे कातिब ने क़लम आप से आप ہو   گیا   دل   یہ   گرفتار_ ستم   آپ   سے   آپ دل   میں   لینے   لگی   حسرت   وہ    جنم   آپ   سے   آپ جب   وہ    موڑ   آیا   تو , کچھ   دیر   تو   سوچا   ہم   نے

कोई ख़ुशी भी मिली तो अज़ाब की सूरत

कोई ख़ुशी भी मिली तो अज़ाब की सूरत तमन्ना छलती है मुझ को सराब की सूरत है अब भी क़ैद निगाहों में ख़्वाब की सूरत “खिला खिला सा वो चेहरा गुलाब की सूरत” हज़ार शोरिशें लाया वो ज़ख़्म दे के गया मेरी हयात से गुज़रा शबाब की सूरत करे वो प्यार तो एहसान की तरह अक्सर है इल्तेफ़ात भी उस का इताब की सूरत हमारे जुर्म और अपनी अताएँ गिनता है वो कर रहा है शिकायत हिसाब की सूरत लिखी हुई है कहानी तमाम हर्फ़ ब हर्फ़ फसाना कह गई सारा जनाब की सूरत खुला किया है वो “मुमताज़” हम पे पै दर पै पढ़ा किए हैं उसे हम किताब की सूरत 

बहार फिर से ख़िज़ाओं में आज ढलने लगी

बहार   फिर   से   ख़िज़ाओं   में   आज   ढलने   लगी अभी   खिले   भी   न   थे   गुल , कि रुत   बदलने   लगी ये   रतजगों   का   सफ़र   और   कब   तलक   आख़िर कि   अब   तो   शब   की सियाही   भी   आँख   मलने   लगी ये   बर्फ़   बर्फ़   में   चिंगारियां   सी   कैसी   हैं ये   सर्द   रुत   में   फिज़ा   दिल   की   क्यूँ   पिघलने   लगी जो   इल्तेफात   की   बारिश   ज़रा   हुई   थी   अभी ये   आरज़ूओं   की   बूढी   ज़मीं   भी   फलने   लगी दरून    ए   जिस्म   कोई   आफ़ताब   है   शायद चली   वो   लू   कि   तमन्ना   की   आँख   जलने   लगी सफ़र   का   शौक़   जो   रक्साँ   हुआ , तो   यूँ   भी   हुआ " ज़मीं   पे   पाँव   रखा   तो   ज़मीन   चलने   लगी” फिर   एक   बार   ये   ' मुमताज़ ' ज़ख्म   भरने   लगे फिर   एक   बार   मेरी   ज़िन्दगी   संभलने   लगी बहार = बसंत ऋतु , खिज़ां = पतझड़ , गुल = फूल , शब = रात , सियाही = कालिख , फिजा = माहौल , इल्तेफात = मेहरबानी , आरज़ू = इच्छा , दरून ए जिस्म = बदन के अन्दर , आफताब = सूरज , तमन्ना = इच्छा ,