आदमीयत का क़त्ल
जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का ख़ूँ आदमीअत काँप उठती है , लरज़ता है सुकूँ आज जब देखा तो दिल के टुकड़े टुकड़े कर गए ये अजन्मे जिस्म ख़ाक-ओ-खून में लिथड़े हुए काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर आदमीअत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर मारते हैं माओं को , बदकार हैं , शैतान हैं कौन वो बदबख़्त हैं , इन्सां हैं या हैवान हैं देख कर ये हादसा , बेचैन हूँ , रंजूर हूँ और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया जो अभी जन्मी नहीं थी , जुर्म क्या उस ने किया मर्द की ख़ातिर सदा क़ुरबानियाँ देती रही आदमी की माँ है वो , क्या जुर्म है उस का यही ? मामता की , प्यार की , इख़लास की मूरत है वो क्यूँ उसे तुम क़त्ल करते हो , कोई आफ़त है वो ? हर सितम सह कर भी अब तक करती आई है वफ़ा जब से आई है ज़मीं पर क्या नहीं उस ने सहा जब वो छोटी थी तो उस को भाई की जूठन मिली खिल न पाई जो कभी , है एक ये ऐसी कली उस को पैदा करने का एहसाँ अगर उस पर किया इस के बदले ज़िन्दगी का हक़ भी उस से ले लिया बिक गई कोठों पे , आतिश का निवाला बन गई ...