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ग़ज़ल - यास की मल्गुजी परतों से तमन्ना का ज़हूर

यास  की  मल्गुजी  परतों  से  तमन्ना  का  ज़हूर याद  ने  तोड़  दिया  आज  अना  का  भी  ग़ुरूर ज़हन  से  पोंछ  दिया  उस  का  हर  इक  नक़्श ओ  निगार आख़िरश कर  ही  लिया  आज  ये  दरिया   भी  उबूर तीरगी  फैल  गई  फिर  से  निगाहों  में,  के  बस एक  लम्हे  को  हुआ  दिल  में  तमन्ना  का  ज़हूर रहज़न-ए- वक़्त  ने  बहका  के  हमें  लूट  लिया न  मोहब्बत  की  ख़ता  थी, न  जफ़ाओं  का  क़ुसूर फिर  कहीं  ऐसा  न  हो  तेरी  ज़रुरत  न  रहे फिर  न  इस  सर  से  उतर  जाए  रिफ़ाक़त  का  सुरूर तालिब  ए  ज़ौक़  ए  समा 'अत  है  हमारी  भी  सदा एक  फ़रियाद  लिए  आए ...

तरही ग़ज़ल - बहार फिर से खिज़ाओं में आज ढलने लगी

बहार  फिर  से  खिज़ाओं  में  आज  ढलने  लगी अभी  खिले  भी  न  थे  गुल , कि रुत  बदलने  लगी ये  रतजगों  का  सफ़र  जाने  कब  तलक  आख़िर कि  अब  तो  शब  की सियाही  भी  आँख  मलने  लगी ये  बर्फ़  बर्फ़  में  चिंगारियां  सी  कैसी  हैं ये  सर्द  रुत  में  फिज़ा  दिल  की  क्यूँ  पिघलने  लगी जो  इल्तेफात  की  बारिश  ज़रा  हुई  थी  अभी ये  आरज़ू 'ओं  की  बूढी  ज़मीं  भी  फलने  लगी दरून   ए  जिस्म  कोई  आफ़ताब  है  शायद चली  वो  लू  कि  तमन्ना  की  आँख  जलने  लगी सफ़र  का  शौक़  जो  रक्साँ  हुआ , तो  यूँ  भी  हुआ "ज़मीं  पे  पाँव  रखा  तो  ज़मीन  चलने ...

तरही ग़ज़ल - है इंतज़ार अना को , मगर नहीं होता

है इंतज़ार अना को , मगर नहीं होता  कोई भी दांव कभी कारगर नहीं होता  हज़ार बार खिज़ां आई दिल के गुलशन पे  ये आरज़ू का शजर बेसमर नहीं होता  हयात लम्हा ब लम्हा गुज़रती जाती है  हयात का वही लम्हा बसर नहीं होता  हकीक़तें कभी आँखों से छुप भी सकती हैं  हर एक अहल ए नज़र दीदावर नहीं होता  गुनह से बच के गुज़र जाना जिस को आ जाता  तो फिर फ़रिश्ता वो होता , बशर नहीं होता  बिसात ए हक़ पे गुमाँ की न खेलिए बाज़ी  यक़ीं की राह से शक का गुज़र नहीं होता  बचा भी क्या है मेरी ज़ात के ख़ज़ाने में  के बेनावाओं को लुटने का डर नहीं होता  नियाज़मंदों से ऐसी भी बेनियाज़ी क्या  "किसी भी बात का उस पर असर नहीं होता " भटकते फिरते हैं 'मुमताज़ ' हम से ख़ाना ब दोश  हर एक फ़र्द की क़िस्मत में घर नहीं होता अना= अहम्, खिज़ां= पतझड़, आरज़ू= इच्छा, शजर= पेड़, बे समर= बिना फल का, हयात= जीवन, लम्हा ब लम्हा= पल पल, हकीक़तें= सच्चाइयाँ, अहल ए नज़र= आँख वाला, दीदावर= देखने का सलीका रखने वाला, गुनह= पाप, बशर= इंसान, ज़ात= ह...

ग़ज़ल - मोहब्बतों के देवता, न अब मुझे तलाश कर

फ़ना हुईं  वो  हसरतें  वो  दर्द  खो  चूका  असर मोहब्बतों  के  देवता,  न  अब  मुझे  तलाश  कर भटक  रही  है  जुस्तजू  समा'अतें हैं  मुंतशर न  जाने  किस  की  खोज  में  है  लम्हा  लम्हा  दर  ब दर ये  खिल्वतें , ये  तीरगी , ये  शब है  तेरी  हमसफ़र इन  आरज़ी ख़यालों के  लरज़ते सायों  से  न  डर हयात ए बे  पनाह  पे  हर  इक  इलाज  बे  असर हैं  वज्द  में  अलालतें  परेशाँ हाल  चारागर बना  है  किस  ख़मीर  से  अना  का  क़ीमती क़फ़स तड़प  रही  हैं  राहतें , असीर  है  दिल  ओ  नज़र पड़ी  है  मुंह  छुपाए  अब  हर  एक  तशना आरज़ू तो  जुस्तजू  भी  थक  गई , तमाम  हो  गया  सफ़र तलातुम  इस  क़द...

तरही ग़ज़ल - हम झेलने अज़ीज़ों का हर वार आ गए

हम झेलने अज़ीज़ों का हर वार आ गए   सीना ब सीना बर सर ए पैकार आ गए ऐ ज़िन्दगी ,   ख़ुदारा हमें अब मुआफ़ कर हम तो तेरे सवालों से बेज़ार आ गए तमसील दुनिया देती थी जिन के ख़ुलूस   की उन को भी दुनियादारी के अतवार आ गए यारो , सितम ज़रीफी तो क़िस्मत की   देखिये कश्ती गई , तो हाथों में पतवार आ गए घबरा गए हैं अक्स की बदसूरती से अब हम आईनों के शहर में बेकार आ गए आवारगी का लुत्फ़  भी अब तो हुआ तमाम   अब तो सफ़र में रास्ते हमवार आ गए इतने हक़ीक़तों से गुरेज़ाँ हुए कि अब " हम ख्व़ाब बेचने सर ए बाज़ार आ गए" अब मुफलिसी की तो कोई क़ीमत न थी , कि हम " मुमताज़" आज बेच के दस्तार आ गए   ہم  جھیلنے  عزیزوں  کا  ہر  وار  آ  گئے   سینہ  بہ سینہ  بر سر  پیکار  آ  گئے   اے  زندگی , خدارا  ہمیں  اب  معاف  کر   ہم  تو  تیرے  سوالوں  سے  بیزار  آ  گئے   تمثیل  دنیا  ...

ग़ज़ल - तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे

तश्नगी को   तो   सराबों   से   भी   छल   सकते  थे   इक   इनायत   से  मेरे   ख़्वाब   बहल   सकते  थे   तुम   ने   चाहा   ही   नहीं   वर्ना कभी   तो  जानां   मेरे  टूटे   हुए   अरमाँ भी  निकल   सकते  थे   तुम  को  जाना   था   किसी   और   ही  जानिब , माना   दो   क़दम   फिर   भी  मेरे  साथ   तो  चल   सकते  थे   काविशों   में   ही  कहीं   कोई   कमी   थी  , वर्ना   ये   इरादे   मेरी   क़िस्मत   भी  बदल   सकते  थे   रास   आ   जाता   अगर   हम   को  अना   का   सौदा   ख़्वाब  आँखों   के   हक़ीक़त में  भी  ढल   सकते  थे   हम  को  अपनी   जो   अन...

ग़ज़ल - तड़प को हमनवा रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो

तड़प को हमनवा रूह-ओ-बतन को कर्बला कर लो ज़रा कुछ देर को माज़ी से भी कुछ सिलसिला कर लो सियाही जो निगल डाले सरासर रौशनी को भी तो फिर हक़ है कहाँ , बातिल है क्या , ख़ुद फ़ैसला कर लो इबादत नामुकम्मल है , अधूरा है हर इक सजदा असास-ए-ज़हन-ओ-दिल को भी न जब तक मुब्तिला कर लो थकन को पाँव की बेड़ी बना लेने से क्या होगा सफ़र आसान हो जाएगा थोड़ा हौसला कर लो बलन्दी भी झुकेगी हौसले के सामने बेशक जो ख़ू परवाज़ को काविश को अपना मशग़ला कर लो ज़माने भर से नालाँ हो , शिकायत है ख़ुदा से भी कभी “ मुमताज़ ” अपने आप से भी तो गिला कर लो تڑپ  کو  ہمنوا  روح  و  بطن  کو  کربلا  کر  لو   ذرا  کچھ  دیر  کو  ماضی  سے  بھی  کچھ  سلسلہ  کر  لو   سیاہی  جو  نگل  جاے  سراسر  روشنی  کو  بھی   تو  پھر  حق  ہے  کہاں  باطل  ہے  کیا  خود  فیصلہ  کر  لو   عبادت  نامکمّل  ہے , ...