हर किसी अपने से नालाँ, सारे बेगानों से दूर


हर किसी अपने से नालाँ, सारे बेगानों से दूर
मस्लेहत तन्हा खड़ी है सारे अरमानों से दूर
ہر کسی اپنے سے نالاں، سارے بیگانوں سے دور
مصلحت تنہا کھڑی ہے سارے ارمانوں سے دور

मुफ़लिसी गिरिया सरा है सारे इमकानों से दूर
सर पटकती है तमन्ना ऊँची दूकानों से दूर
مفلسی گریہ سرا ہے سارے امکانوں سے دور
سر پٹکتی ہے تمنا اونچی دوکانوں سے دور

बात कोई हो, फ़साने कितने बुन लेते हैं लोग
चाहे जितनी हो हक़ीक़त ऐसे अफ़सानों से दूर
بات کوئی ہو، فسانے کتنے بُن لیتے ہیں لوگ
چاہے جتنی ہو حقیقت ایسے افسانوں سے دور

मर नहीं सकती हक़ीक़त बातिलों के वार से
आतिश-ए-नमरूद तो है हक़ के दामानों से दूर
مر نہیں سکتی حقیقت باطلوں کے وار سے
آتشِ نمرود تو ہے حق کے دامانوں سے دور

सर झुकाएँ, पाँव चूमें? यूँ कोई ऐज़ाज़ लें?
हम किसी कम ज़र्फ़ के रहते हैं अहसानों से दूर
سر جھکائیں؟ پاؤں چومیں؟ یوں کوئی عیزاز لیں؟
ہم کسی کمظرف کے رہتے ہیں احسانوں سے دور

क्या पता मारें वो मक्खी और गला ही काट दें
ख़ैर चाहो तो हमेशा रहना नादानों से दूर
کیا پتہ ماریں وہ مکھی اور گلا ہی کاٹ دیں
خیر چاہو تو ہمیشہ رہنا نادانوں سے دور

ओढ़ लीजे ख़ुश दिली अब वहशतों को छोड़ कर
आज तो “मुमताज़” चलिये सारे वीरानों से दूर
اوڑھ لیجے خوش دلی اب وحشتوں کو چھوڑ کر
آج تو ممتازؔ چلئے سارے ویرانوں سے دور

Comments

Popular posts from this blog

ज़ालिम के दिल को भी शाद नहीं करते