माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं
माज़ी के निशाँ और हाल का ग़म जब एक ठिकाने मिलते हैं
कुछ और चुभन बढ़ जाती है जब यार पुराने मिलते हैं
गो इश्क़ की इस लज़्ज़त से हमें महरूम हुए इक उम्र हुई
अब भी वो हमें महरूमी का एहसास दिलाने मिलते हैं
दिन रात मिलाने पड़ते हैं घर छोड़ के जाना पड़ता है
पुर ज़ोर मशक़्क़त से यारो कुछ रिज़्क़ के दाने मिलते हैं
अब तक तो फ़िज़ा-ए-दिल पर भी वीरान ख़िज़ाँ का मौसम है
देखें कि बहारों में अब के क्या ख़्वाब न जाने मिलते हैं
देखो तो कभी, पलटो तो सही, अनमोल है इन का हर पन्ना
माज़ी की किताबों में कितने नायाब फ़साने मिलते हैं
हसरत के लहू का हर क़तरा मिट्टी में मिलाना पड़ता है
मत पूछिए कितनी मुश्किल से ग़म के ये ख़ज़ाने मिलते हैं
जज़्बात के पाओं में बेड़ी, गुफ़्तार पे क़ुफ़्ल-ए-नाज़-ए-अना
वो मिलते भी हैं तो यूँ जैसे एहसान जताने मिलते हैं
दो चार निवाले भी न मिले तो आब-ए-क़नाअत पी डाला
इस बज़्म-ए-जहाँ की भीड़ में कुछ ऐसे भी घराने मिलते हैं
तक़सीम-ए-मोहब्बत करते हैं मख़मूर-ए-ग़म-ए-दौराँ हो कर
बेकैफ़ जहाँ में अब भी कुछ “मुमताज़” दीवाने मिलते हैं
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