लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ


लग़्ज़िशों को शबाब देती हूँ
फिर बहारों को ख़्वाब देती हूँ

ख़ुद को यूँ भी अज़ाब देती हूँ
आरज़ू का सराब देती हूँ

सी के लब ख़ामुशी के धागों से
हसरतों को अज़ाब देती हूँ

जी रही हूँ बस एक लम्हे में
इक सदी का हिसाब देती हूँ

ज़ुल्म सह कर भी मुतमइन हूँ मैं
ज़िन्दगी को जवाब देती हूँ

वक़्त-ए-रफ़्ता के हाथ में अक्सर
ज़िन्दगी की किताब देती हूँ

बाल-ओ-पर की हर एक फड़कन को
हौसला? जी जनाब, देती हूँ

हर इरादे की धार को फिर से
आज मुमताज़ आब देती हूँ

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