ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से


ये शिद्दत तश्नगी की बढ़ रही है अश्क पीने से
हमें वहशत सी अब होने लगी मर मर के जीने से

बड़ी तल्ख़ी है लेकिन इस में नश्शा भी निराला है
हमें मत रोक साक़ी ज़िन्दगी के जाम पीने से

हर इक हसरत को तोड़े जा रहे हैं रेज़ा रेज़ा हम
उतर जाए ये बार-ए-आरज़ू शायद कि सीने से

अभी तक ये फ़सादों की गवाही देती रहती है
लहू की बू अभी तक आती रहती है ख़ज़ीने से

बिखर जाएगा सोना इस ज़मीं के ज़र्रे ज़र्रे पर
ये मिट्टी जगमगा उट्ठेगी मेहनत के पसीने से

हमारे दिल के शोलों से पियाला जल उठा शायद
लपट सी उठ रही है आज ये क्यूँ आबगीने से

ये जब बेदार होते हैं निगल जाते हैं ख़ुशियों को
ख़लिश के अज़्दहे लिपटे हैं माज़ी के दफ़ीने से

हमें तो ज़िन्दगी ने हर तरह आबाद रक्खा है  
तो क्यूँ मुमताज़ अब लगने लगा है ख़ौफ़ जीने से

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