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ख़ुश हो रहा है वो जो मोहब्बत को मार के

ख़ुश हो   रहा   है   वो   जो   मोहब्बत    को   मार   के ढूँढा किये   हैं   हम   भी   तो   रस्ते   फ़रार   के छींटे   उरूसी   कैसे   ये   बिखरे   हैं   चार   सू अब   के   खिज़ां में   रंग   हैं   फ़स्ल   ए बहार   के कब   तक   न   जाने   देते   रहेंगे   अज़ीयतें कुछ   रह   गए   हैं   ज़ख्म   में   टुकड़े   जो   ख़ार   के पल   पल   रहे   हिसार   में   इक   बेहिसी   के   हम   एहसान   हम   पे   कितने   हैं   एहद   ए   क़रार   के काँटा   सा   एक   चुभता   था   कब   से   जो   ज़ेहन   में काग़ज़   पे   रख   दिया   है   वही   सच   उतार   के हम   एक   गाम   भी   न   फिर   आगे   बढ़ा   सके क़दमों   में   उस   ने   डाल दी   बेड़ी , पुकार   के हो   ही   चुका   ये   इम्तेहाँ , मर   ही   चुका   ज़मीर    अब   क्या   मिलेगा   ज़ख़्मी   तमन्ना   को   मार   के दानिस्ता   हम   ने   उस   को   जिताया   है   ये   भी   दांव " मुमताज़ " हम   तो   उस   को   भी   आए   हैं   हार   के फ़रार = भागना , उरूसी = लाल रंग का , चार सू = चारों तरफ़ , खिज़ा

दुनिया की हम को फ़िक्र, न सूद ओ ज़ियाँ की है

दुनिया   की   हम   को   फ़िक्र ,   न सूद   ओ   ज़ियाँ की   है हम   को   तो   बस   तलाश   तेरे   आस्तां   की   है झटके   में   जिस   ने   तोड़ी   है   ज़ंजीर   पाँव   की ये   जुरअत   ए   निजात   इसी   नातवाँ   की   है जिस   की   शिकस्ता पाई   को   ठुकरा   गए   थे   तुम अब   क्यूँ   तुम्हें   तलाश   उसी   बेनिशाँ   की   है फूँका   जो   बर्क़ - ए - वहम   ने , गुलशन   वफ़ा   का   था जो   ख़ाक   बच   गई   है , मेरे   आशियाँ   की   है कहते      हैं    दिल    की   बात   इशारों   में   हम   भी   यूँ फ़रियाद   है   फ़लाँ   की , शिकायत   फ़लाँ   की   है सरहद   यहीं   तलक   है   दयार   ए   यक़ीन   की मंज़िल   फिर   इस   के   बाद   तो   वहम   ओ   गुमाँ   की   है जोश   ए   जूनून होश   में   आने   लगा   है   फिर ' मुमताज़ ' अब   संभल , के   घडी   इम्तेहाँ की   है دنیا   کی   ہم   کو   فکر   نہ   صود و   ضیاں   کی   ہے ہم   کو   تو   بس   تلاش   ترے   آستاں    کی   ہے جھٹکے   میں   جس   نے   توڑی    ہے   زنجیر   پاؤں   کی یہ

ख़ामुशी से यूँ भी अक्सर हो गए

ख़ामुशी   से   यूँ   भी   अक्सर   हो   गए हादसे   अन्दर   ही   अन्दर   हो   गए कल   झुके   रहते   थे   क़दमों   में   जो   सब आज   वो   मेरे   बराबर   हो   गए हैं   मुसाफ़िर   ख़ुद   ही   अंधी   राह   के आप   कब   से   मेरे   रहबर   हो   गए मुन्तज़िर   है   सरफ़रोशी   का   जुनूँ ख़त्म   अब   तो   सारे   पत्थर   हो   गए खुशबुओं   का   वो   कोई   सैलाब   था उस   को   छू   कर   हम   भी   अम्बर   हो   गए बढ़   गई   इतनी   तमाज़त   दर्द   की ख़ुश्क   अशकों के     समंदर   हो   गए वो   भी   है   " मुमताज़ " ख़ुद   से   बदगुमाँ वहशतों   के   हम   भी   ख़ूगर   हो   गए خامشی   سے   یوں   بھی   اکثر   ہو   گئے حادثے   اندر   ہی   اندر   ہو   گئے   کل   جھکے   رہتے   تھے   قدموں   میں   جو   سب آج   وہ   میرے   برابر   ہو   گئے   ہیں   مسافر   خود   ہی   اندھی   راہ   کے آپ   کب   سے   میرے   رہبر   ہو   گئے   منتظر   ہے   سرفروشی   کا   جنوں ختم   اب   تو   سارے   پتھر   ہو   گئے   خوشبوؤں   کا  

इक बार उन आँखों में इक़रार नज़र आए

इक बार उन आँखों में इक़रार नज़र आए बीनाई महक उट्ठे महकार नज़र आए एहसास हुआ हम को शिद्दत से तबाही का हम को ये गुल-ए-लाला बेकार नज़र आए चेहरे की लकीरों में क्या क्या न फ़साने थे आईने में माज़ी के असरार नज़र आए माज़ी की गली में हम ठहरे जो घड़ी भर को हर ज़र्रे में नम दीदा अदवार नज़र आए उस फ़र्द-ए-मुजाहिद से थर्राती हैं शमशीरें हाथों में क़लम जिस के तलवार नज़र आए तहज़ीबों की क़दरों पर शक होने लगा हम को हर सिम्त जो लाशों के अंबार नज़र आए उम्मीद लिए अक्सर उस राह से गुजरे हैं शायद वो कहीं हम को इक बार नज़र आए “मुमताज़” के हाथों में फ़न का वो ख़ज़ाना है जब हाथ ने जुंबिश की शहकार नज़र आए