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Apne saaye se bhi ashkon ko chhupa kar rona Ghazal by Aziz Naza
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कभी मेहर-ए-ताबाँ, कभी माह बन कर.... चमकती हूँ मैं आसमानों के रुख़ पर.... है परवाज़ मेरी जहानों से बरतर.... मैं मुमताज़ हूँ और नाज़ाँ हूँ ख़ुद पर