उठा है फिर रूह में तलातुम, कहीं नज़र में उतर न आए


उठा है फिर रूह में तलातुम, कहीं नज़र में उतर न आए
शदीद है दर्द की तमाज़त, कहीं मेरी आँख भर न आए
 اُٹھا ہے پھر روح میں طلاطم کہیں نظر میں اتر نہ آئے
شدید ہے درد کی تمازت کہیں مری آنکھ بھر نہ آئے

ये ग़ार दिल का है कितना गहरा कि इस जगह अब सहर न आए
न जाने मैं किस मक़ाम पर हूँ कि अपनी भी अब ख़बर न आए
یہ غار دل کا ہے کتنا گہرا کہ اس جگہ اب سحر نہ آئے
نہ جانے میں کس مقام پر ہوں کہ اپنی بھی اب خبر نہ آئے

मचल रही है फिर एक हसरत, कि दिल को धड़का लगा हुआ है
ज़रा अभी दर्द कम हुआ है, ये ज़ख़्म फिर से उभर न आए
مچل رہی ہے پھر ایک حسرت کہ دل کو دھڑکا لگا ہوا ہے
ذرا ابھی درد کم ہوا ہے یہ زخم پھر سے ابھر نہ آیے

समेट कर बिखरे बाल-ओ-पर को फ़लक की जानिब फिर उड़ चली हूँ
ग़म-ए-ज़माना को कोई रोको, जुनून के पर कतर न आए
سمیٹ کر بکھرے بال و پر کو فلک کی جانب پھر اُڑ چلی ہوں
غمِ زمانہ کو کوئی روکو، جنون کے پر کتر نہ آئے

पिरो के हम आँख के सितारे सजाया करते हैं महफ़िलों को
कुरेद कर ज़ख़्म नग़्माज़न हो, हर एक को ये हुनर न आए
پرو کے ہم آنکھ کے ستارے سجایا کرتے ہیں محفلوں کو
کرید کر زخم نغمہ زن ہو ہر ایک کو یہ ہنر نہ آئے

मोहब्बतों के अज़ाब भी हैं, वफ़ा के माना सराब भी हैं
घना है जज़्बात का अंधेरा, कहीं भी कुछ भी नज़र न आए
محبتوں کے عذاب بھی ہیں وفا کے مانا سراب بھی ہیں
گھنا ہے جذبات کا اندھیرا کہیں بھی کچھ بھی نظر نہ آئے

जहाँ प छोड़ा था उस ने मुझ को वहीं मैं अब तक खड़ी हुई हूँ
चलूँ तो कैसे चलूँ मैं आगे कि जब तक इज़्न-ए-सफ़र न आए
جہاں پہ چھوڑا تھا اُس نے مجھ کو وہیں میں اب تک کھڑی ہوئی ہوں
چلوں تو کیسے چلوں میں آگے کہ جب تک اذنِ سفر نہ آئے

इरादा तो ये नहीं था लेकिन क़दम क़दम सौ भँवर पड़े थे
चले जो इक बार छोड़ कर सब, पलट के "मुमताज़" घर न आए
ارادہ تو یہ نہیں تھا لیکن قدم قدم سو بھنور پڑے تھے
چلے جو اک بار کھوڑ کر سب پلٹ کے ممتازؔ گھر نہ آئے

रूह - आत्मा, तलातुम - तूफ़ान, शदीद - तेज़, तमाज़त - गर्मी, ग़ार - गुफा, सहर - सुबह, मक़ाम - जगह, हसरत - इच्छा, फ़लक - आकाश, जानिब - तरफ, नग़्माज़न - गीत गाना, अज़ाब - कष्ट, सराब - मृगतृष्णा, जज़्बात - भावनाएँ, इज़्न-ए-सफ़र - यात्रा की आज्ञा

Comments

  1. बहुत सुंदर। लाजवाब ग़ज़ल।

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