बाज़ी -मुमताज़ अज़ीज़ नाज़ाँ
और फिर अंजाम वही हुआ......
एक बार फिर नतीजा वही निकला......
एक बार फिर वह यह बाज़ी हार गई।
उसका दिल टुकड़ा टुकड़ा हो गया था और हर एक टुकड़ा ख़ून के आँसू रो रहा था। सच तो यह
था....कि उसे अब तक यक़ीन नहीं हो रहा था कि अब वह उस की ज़िन्दगी में शामिल नहीं रहा
था......
लेकिन सच तो सच था......
उस ने अपना ध्यान बँटाने के लिए टीवी ऑन कर लिया, कुछ देर तक यूँ ही
चैनल पर चैनल बदलती रही, एक चैनल पर कॉमेडी फिल्म आ रही थी, वह वहीं रुक गई,
“यह ठीक है, शायद कॉमेडी से उस की ट्रैजिडि का एहसास कुछ
कम हो जाए...” उस ने सोचा। टीवी पर फिल्म चल रही थी, दरख़्शाँ की आँखें टीवी के स्क्रीन पर जमी थीं लेकिन वह फ़िल्म नहीं देख रही
थी, उस के ज़हन में तो कोई और ही फ़िल्म चल रही थी। गुज़िश्ता ज़िन्दगी
के तितर बितर से लम्हे उसकी आँखों के सामने रक़्स कर रहे थे....और हर लम्हे में एक सवाल
पोशीदा था। क्यूँ.....क्यूँ.......क्यूँ........?
और इस क्यूँ का जवाब उसे आज तक नहीं मिला था।
दरख़्शाँ.....
ख़ूबसूरत......ज़हीन......कामयाब.....
अपने हज़ारों दीवानों के दिलों की मलिका....
उस की एक झलक पाने को लोग उस की राहों में पलकें बिछाए रहते थे।
और वही दरख़्शाँ आज टूटी फूटी सी बैठी थी....
अभी ज़ियादा अरसा कहाँ गुज़रा था जब फ़हद से उस का ब्रेकअप हुआ था......
वह भी बिना कुछ कहे यूँ ही उस की ज़िन्दगी से लातअल्लुक़ हो गया था।
और वह ज़िल्लत और मात के इसी भँवर में डूब गई थी.......और अपनी ज़ात के टुकड़ों को
समेटने की नाकामयाब कोशिश कर रही थी......
.....और उसे जावेद मिल गया था।
शुरू में तो उस ने उसे सिरे से नज़र अंदाज़ कर दिया था। लेकिन फिर....रफ़्ता रफ़्ता
वह उसे पसंद करने लगी थी.....
धीरे धीरे वह दर्द कम हो चला था जो फ़हद उसे दे गया था....
हालांकि वह अब भी उसे भूल नहीं सकी थी, लेकिन धीरे धीरे वह जावेद की आँखों में डूबती
चली गई थी।
फिर एक दिन.......
....उसे एहसास हुआ कि वह जावेद की मोहब्बत में ग़र्क़ हो चुकी है......आह.....क्या
एहसास था वह भी......
जैसे वह हवा में उड़ रही है......
जैसे एक ख़ुमार सा छा गया हो उस पर.....
जैसे ख़िज़ाँ के मौसम में अचानक बहार आ गई हो.....
वक़्त अपनी रफ़्तार से गामज़न था।
और वह वक़्त के परों पर बैठी न जाने किस मंज़िल की तरफ़ उड़ी चली जा रही थी। चाँद, सूरज, सितारे, सब पीछे छूटते जा रहे थे......
और फिर......
वह उस बलन्दी से यकायक नीचे आ गिरी।
शायद ग़लती खुद उस की ही थी।
उन दिनों न जाने उसे क्या हो गया था, उस के दिल में एक अंजाना सा ख़ौफ़ बैठ गया था....जाने
कैसी बेक़रारी थी....हर लम्हा उलझन, हर घड़ी डर का वही एहसास......जावेद
के खो जाने का डर.....पता नहीं क्यूँ…..
जावेद ज़रा देर के लिए नज़रों से ओझल होता तो वह बेचैन हो जाती, ज़रा वह किसी लड़की
से बात कर लेता तो वह जल भुन के कबाब हो जाती.....
और जावेद......
....उस की बातों को हँसी में उड़ा देता।
......और फिर आख़िरकार, वह दिन भी आ ही गया....वह मनहूस दिन....
दरख़्शाँ अपनी आदत के मुताबिक़ किसी बात को ले कर जावेद से झगड़ बैठी थी.....और जावेद...न
जाने उस दिन किस मूड में था.....उस दिन वह भी शो’ला पैकर बन गया था.....और फिर दोनों के
बीच गुफ़्तगू का सिलसिला कुछ यूँ टूटा कि फिर कभी जुड़ न पाया।
फ़ासले बढ़ते गए....बढ़ते ही गए....
लेकिन कोई भी हार मानने को तैयार न था। यह अना भी अजीब शय है, भले ही दिल के लाख
टुकड़े हो जाएँ....लेकिन यह ज़हन को झुकने नहीं देती।
दरख़्शाँ टूटती रही, बिखरती रही, हर लम्हा हज़ार मौत मरती रही....लेकिन
झुक जाना उसे गवारा न था।
....और आख़िर अंजाम वही तो होना था....जो हुआ.....
वह यह बाज़ी भी हार चुकी थी।
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