कभी तो होगा उसपर भी असर, आहिस्ता-आहिस्ता
कभी तो होगा उसपर भी असर, आहिस्ता-आहिस्ता
तुलू होगी अंधेरे से सहर.... आहिस्ता..... आहिस्ता
हमारी बेख़ुदी जाने कहाँ ले जाए अब हम को
किधर जाना था, चल निकले किधर, आहिस्ता आहिस्ता
लगी है ख़ाक उड़ने, अब ज़मीन-ए-दिल में सहरा है
लगे हैं सूखने सारे शजर, आहिस्ता....आहिस्ता....
उभरता है नियाज़-ए-शौक़ अब तो बेनियाज़ी से
दुआ जाने लगी है अर्श पर आहिस्ता आहिस्ता
मोहब्बत अब मुसलसल दर्द में तब्दील होती है
बना जाता है शो’ला इक शरर आहिस्ता आहिस्ता
चला ले तीर जितने तेरे तरकश में हैं ऐ क़ातिल
मेरे सीने पे लेकिन वार कर आहिस्ता आहिस्ता
लहू दिल का पिला कर पालते हैं फ़न की कोंपल को
ये पौधा बन ही जाएगा शजर आहिस्ता आहिस्ता
क़दम उठते हैं लेकिन रास्ता तय ही नहीं होता
“कि हरकत तेज़ तर है और सफ़र आहिस्ता आहिस्ता”
अगर है जुस्तजू तुझ को मोहब्बत के ख़ज़ाने की
तो फिर “मुमताज़” धड़कन में उतर आहिस्ता आहिस्ता
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