जो शाम आती है जब उम्मीद का ख़ुर्शीद ढलता है


जो शाम आती है जब उम्मीद का ख़ुर्शीद1 ढलता है
महाज़-ए-तीरगी2 पर इक दिया ख़ामोश जलता है

अलम3 को जज़्ब4 कर लेते हैं तीरा शब5 के सन्नाटे
अकेलेपन में हर इक दर्द आँखों से पिघलता है

बिलखते लाल की मजबूर माँ को कौन समझाए
तही6 बर्तन पकाने से कहीं बच्चा बहलता है?

अज़ीयत7 बेहिसी8 की रूह9 का ख़ूँ10 करती जाती है
अँधेरा ज़ेहन11 का उल्फ़त के सूरज को निगलता है

लहू से लाल हो जाती है मिट्टी गुलसितानों की
शजर12 से तोड़ कर ये कौन कलियों को मसलता है

कभी ये बेहिसी भी एक नेमत लगने लगती है
हमें "मुमताज़" अब अपना हर इक एहसास खलता है
1- सूरज, 2- अँधेरे से जंग का मैदान, 3- दर्द, 4- सोख लेना, 5- अँधेरी रात, 6- ख़ाली, 7- तकलीफ़, 8- भावना शून्यता, 9- आत्मा, 10- हत्या, 11- दिमाग़, 12- वृक्ष


جو شام آتی ہے جب امید کا خورشید ڈھلتا ہے
مہاذِ تیرگی پر اک دیا خاموش جلتا ہے

الم کو جزب کر لیتے ہیں تیرہ شب کے سناٹے
اکیلے پن میں ہر اک درد آنکھوں سے پگھلتا ہے

بلکھتے لال کی مجبور ماں کو کون سمجھائے
تہی برتن پکانے سے کہیں بچہ بہلتا ہے؟

عذئیت بیحسی کی روح کا خوں کرتی جاتی ہے
اندھیرا زہن کا الفت کے سورج کو نگلتا ہے

لہو سے لال ہو جاتی ہے مٹی گلستانوں کی
شجر سے توڑ کر یہ کون کلیوں کو مسلتا ہے

کبھی یہ بیحسی بھی ایک نعمت لگنے لگتی ہے
ہمیں ممتازؔ اب اپنا ہر اک احساس کھلتا ہے


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