ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल का निशाँ समझी थी मैं
ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल
का निशाँ समझी थी मैं
मजमा-ए-याराँ को अब
तक कारवाँ समझी थी मैं
खोखली थी, दीमकों ने चाट डाला था उसे
शाख़ वो, जिस को कि अपना आशियाँ समझी थी मैं
एक ही हिचकी में सब
कर्ब-ओ-अज़ीयत मिट गई
ज़िन्दगी की तल्ख़ियों
को जाविदाँ समझी थी मैं
मसलेहत की आँच से पल
में पिघल कर रह गया
वो जुनूँ जिस को अभी
तक बेतकाँ समझी थी मैं
जुस्तजू जब की तो पै
दर पै सभी खुलते गए
ज़ाविए अपनी भी हस्ती
के कहाँ समझी थी मैं
इस तलातुम ने बुलंदी
बख़्श दी इस ज़ात को
इन्क़ेलाब-ए-ज़हन-ओ-दिल
को तो ज़ियाँ समझी थी मैं
बन गया “मुमताज़” दुश्मन
मेरी जाँ का आजकल
दिल वही, जिस को कि अपना राज़दाँ समझी थी मैं
मजमा-ए-याराँ – दोस्तों
का जमावड़ा, कर्ब-ओ-अज़ीयत
– दर्द और तकलीफ़, जाविदाँ - अमर, मसलेहत
– दुनियादारी, बेतकाँ – न थकने वाला, जुस्तजू
- तलाश, पै दर पै – step by step, ज़ाविए - पहलू, तलातुम -
तूफ़ान, इन्क़ेलाब - क्रांति, ज़हन - मस्तिष्क, ज़ियाँ – नुक़सान
khwaab ke manzar ko manzil ka nishaaN samjhi thi maiN
majma-e-yaaraaN ko ab tak kaarwaaN samjhi thi maiN
khokhli thi, deemkoN ne chaat daala tha use
shaakh wo jis ko ki apna aashiyaaN samjhi thi maiN
ek hi hichki meN sab karb-o-azeeyat mit gai
zindagi kee talkhiyoN ko jaavidaaN samjhi thi maiN
maslehat kee aanch se pal meN pighal kar rah gaya
wo junooN jis ko abhi tak betakaaN samjhi thi maiN
justju jab kee to pai dar pai sabhi khulte gae
zaaviye apni bhi hasti ke kahaN samjhi thi maiN
is talaatum ne balandi bakhsh di is zaat ko
inqelaab-e-zahn-o-dil ko to ziyaaN samjhi thi maiN
ban gaya "Mumtaz" dushman meri jaaN ka aajkal
dil wahi jis ko ki apna raazdaaN samjhi thi maiN
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