ग़ज़ल - जागती आँखों में उतरा रूह के अंदर गया
जागती
आँखों में उतरा, रूह के अंदर गया
फिर
वही एहसास इस दिल को मुनव्वर कर गया
किस
क़दर तारीक मेरे ज़हन-ओ-दिल को कर गया
ज़ीस्त
से मेरी हमेशा के लिए ख़ावर गया
उलझनें, राहत, सुकूँ, बेचैनियाँ, रानाइयाँ
दिल
एक इक सादा वरक़ पर रंग कितने भर गया
इस
तज़ाद-ए-ज़हन ने क्या क्या सताया है हमें
जिस
गली से था गुरेज़ाँ, दिल वहीं अक्सर गया
वक़्त-ए-रुख़सत
वो ख़मोशी और वो हसरत की नज़र
दिल
पे इक संग-ए-गराँ वो बेवफ़ा फिर धर गया
हो
गया था कल गुज़र यादों के क़ब्रस्तान से
इस
बला का शोर था, बेसाख़्ता दिल डर गया
अजनबी
कोई मुसाफ़िर जैसे गुज़रे राह से
मेरे
पहलू से वो इस अंदाज़ से उठ कर गया
फिर
भी ख़ाली ही रहा दामन मुरादों से मगर
इस
जहान-ए-आरज़ू में दिल मेरा दर दर गया
सी
लिए थे मैं ने तो “मुमताज़” अपने लब तलक
इसलिए
शायद हर इक इल्ज़ाम मेरे सर गया
मुनव्वर
–
रौशन, तारीक – अंधेरा, ज़ीस्त – ज़िन्दगी, ख़ावर – सूरज, रानाइयाँ – रौनक़, वरक़ – पन्ना, तज़ाद – विपरीत बातें, संग-ए-गराँ – भारी
पत्थर
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