ग़ज़ल - भटकती फिर रही है मुस्तक़िल अब दश्तगाहों में

भटकती फिर रही है मुस्तक़िल अब दश्तगाहों में
अजब अंदाज़ से है ज़िन्दगी अटकी दोराहों में
BHATAKTI PHIR RAHI HAI MUSTAQIL AB DASHTGAAHON MEN
AJAB ANDAAZ SE HAI ZINDAGI ATKI DORAAHON MEN

पलट कर अपने माज़ी को कभी आवाज़ देती हूँ
कभी घबरा के खो जाती हूँ मुस्तक़बिल की बाहों में
PALAT KAR APNE MAAZI KO KABHI AAWAZ DETI HOON
KABHI GHABRA KE KHO JAATI HOON MUSTAQBIL KI BAAHON MEN

अमीरों में हमारा कोई भी सानी नहीं साहब
ज़मीं क़दमों तले है आसमाँ है अपनी बाहों में
AMEERON MEN HAMAARA KOI BHI SAANI NAHIN SAAHAB
ZAMEEN QADMON TALE HAI AASMAAN HAI APNI BAAHON MEN

चुभन से मंज़रों की डर के आँखें बंद तो कर लीं
चुभे जाते हैं मंज़र ख़्वाब के अबके निगाहों में
CHUBHAN SE MANZARON KI DAR KE AANKHEN BAND TO KAR LEEN
CHUBHE JAATE HAIN MANZAR KHWAAB KE AB KE NIGAAHON MEN

करम कुछ वक़्त का है और कुछ हालात की मर्ज़ी
हमारा ज़िक्र भी आ ही गया आख़िर तबाहों में
KARAM KUCHH WAQT KA HAI AUR KUCHH HAALAAT KI MARZI
HAMAARA ZIKR BHI AA HI GAYA AAKHIR TABAAHON MEN

कमी कोई न रह जाए कि जश्न-ए-मर्ग-ए-हसरत है
चराग़ाँ हो रहा है आज दिल की ख़ानक़ाहों में
KAMI KOI NA REH JAAE KE JASHN E MARG E HASRAT HAI
CHARAAGHAAN HO RAHA HAI AAJ DIL KI KHAANQAAHON MEN

पलट कर देखते भी हम नहीं लेकिन यही सच है
अभी तक ज़िन्दगी बिखरी है उन वीरान राहों में
PALAT KAR DEKHTE BHI HAM NAHIN LEKIN YAHI SACH HAI
ABHI TAK ZINDAGI BIKHRI HAI UN VEERAAN RAAHON MEN

हम अपनी वहशतों से छुप के आए थे यहाँ, लेकिन
बड़े मुमताज़ धोखे हैं मोहब्बत की पनाहों में  
HAM APNI WAHSHATON SE CHHUP KE AAE THE YAHAN LEKIN
BADE 'MUMTAZ' DHOKE HAIN MOHABBAT KI PANAAHON MEN


मुस्तक़िल लगातार, दश्तगाह जंगल, मुस्तक़बिल भविष्य, सानी हमारे जैसा दूसरा, जश्न-ए-मर्ग-ए-हसरत इच्छाओं की मौत का जश्न, ख़ानक़ाह आश्रम, मुमताज़ अनोखा

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