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परेशाँ करती थी तूफ़ाँ की दिल्लगी हर वक़्त

परेशाँ करती थी   तूफ़ाँ की   दिल्लगी   हर वक़्त मगर ये काग़ज़ी कश्ती भी क्या लड़ी ,   हर वक़्त हमारा ज़ौक़   भी   बदज़न   ज़रा ज़रा   सा   रहे   तमन्ना भी रहे   हम से   तनी तनी   हर   वक़्त क़रीब   आ के   जो   मंज़िल   चुरा   गई   नज़रें तो फिर लगन यही हम को लगी रही   हर वक़्त दर - ए - हबीब पे   हम छोड़   आए   थे   जिस   को पुकारा करती है हम को वो   बेख़ुदी   हर   वक़्त ख़ज़ाना दिल की रियासत में कम न था लेकिन न जाने क्यूँ मेरा दामन रहा तही   हर   वक़्त कभी   सरापा   इनायत , कभी   सरापा   अज़ाब नसीब भी करे हम से तो दिल्लगी   हर   वक़्त अगरचे दिल भी था सैराब , रूह   भी   ख़ुश   थी किसी तो शय की रही ज़ीस्त में कमी हर वक़्त निगलती जाती है इस को ये   तीरगी   फिर   भी " उलझ रही है   अंधेरों   से   रौशनी   हर   वक़्त " अगरचे सूख चुका है   हर एक   बहर - ए - तिलिस्म नज़र में रहती है ' मुमताज़ ' इक नमी   हर वक़्त پریشاں کرتی   تھ

दीद की हर उम्मीद मिटा दी

दीद की   हर उम्मीद   मिटा दी हम ने   तेरी तस्वीर    छुपा दी याद भी उस की दिल से मिटा दी बारहा ख़ुद को यूँ भी सज़ा   दी दिल तो हुआ अब दर्द   का   आदी अब जो तसल्ली दी भी तो क्या दी दूर निकल आए हैं तो   हम   को ख़्वाब नगर से किस ने   सदा   दी हम पे है   एहसान   ख़ुदा   का रंग - ए - तग़ज्ज़ुल , फ़हम - ओ - ज़का दी होश   ने   पहने   पंख   जुनूँ के उस ने हमें क्या शय ये पिला दी माज़ी   के   वीरान   मकाँ की जब   गुज़रे   ज़ंजीर   हिला   दी जल   जाएं   सब   ज़हन की   पर्तें हम   को   तबीअत   बर्क़ नुमा   दी चैन   के   इक   लम्हे   की   ख़ातिर हर   क़ीमत   " मुमताज़ " सिवा   दी دید کی ہر امید مٹا دی ہم نے تیری تصویر چھپا دی یاد   بھی   اس   کی   دل   سے   مٹا   دی بارہا   خود   کو   یوں   بھی   سزا   دی دل   تو   ہوا   اب   درد   کا   عادی اب   جو   تسلّی دی   بھی   تو   کیا   دی دور   نکل   آے   ہیں   تو   ہم   کو خواب   نگر   سے   کس   نے