परेशाँ करती थी तूफ़ाँ की दिल्लगी हर वक़्त
परेशाँ करती थी तूफ़ाँ की दिल्लगी हर वक़्त मगर ये काग़ज़ी कश्ती भी क्या लड़ी , हर वक़्त हमारा ज़ौक़ भी बदज़न ज़रा ज़रा सा रहे तमन्ना भी रहे हम से तनी तनी हर वक़्त क़रीब आ के जो मंज़िल चुरा गई नज़रें तो फिर लगन यही हम को लगी रही हर वक़्त दर - ए - हबीब पे हम छोड़ आए थे जिस को पुकारा करती है हम को वो बेख़ुदी हर वक़्त ख़ज़ाना दिल की रियासत में कम न था लेकिन न जाने क्यूँ मेरा दामन रहा तही हर वक़्त कभी सरापा इनायत , कभी सरापा अज़ाब नसीब भी करे हम से तो दिल्लगी हर वक़्त अगरचे दिल भी था सैराब , रूह भी ख़ुश थी किसी तो शय की रही ज़ीस्त में कमी हर वक़्त निगलती जाती है इस को ये तीरगी फिर भी " उलझ रही है अंधेरों से रौशनी हर वक़्त " अगरचे सूख चुका है हर एक बहर - ए - तिलिस्म नज़र में रहती है ' मुमताज़ ' इक नमी हर वक़्त پریشاں کرتی تھ