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dard e wahshat ko tabassum kii qaba dete hain #Mumtaz Aziz Naza New #Ghazal
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#New Ghazal Recited by #Mumtaz Aziz Naza rang bhare khwaabon kii dhanak ...
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कभी मेहर-ए-ताबाँ, कभी माह बन कर.... चमकती हूँ मैं आसमानों के रुख़ पर.... है परवाज़ मेरी जहानों से बरतर.... मैं मुमताज़ हूँ और नाज़ाँ हूँ ख़ुद पर