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नज़्म- सवाल

एक बेटी ने ये रो कर कोख से दी है सदा मैं भी इक इंसान हूँ , मेरा भी हामी है ख़ुदा कब तलक निस्वानियत का कोख में होगा क़िताल बिन्त ए हव्वा पूछती है आज तुम से इक सवाल जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का क़त्ल आदमीयत काँप उठती है , लरज़ जाता है अद्ल देखती हूँ रोज़ क़ुदरत के ये घर उजड़े हुए ये अजन्मे जिस्म , ख़ाक ओ ख़ून में लिथड़े हुए देख कर ये सिलसिला बेचैन हूँ , रंजूर हूँ और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर आदमीयत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर कौन वो बदबख़्त हैं , इन्साँ हैं या हैवान हैं मारते हैं माओं को , बदकार हैं , शैतान हैं कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया जो अभी जन्मी नहीं थी , जुर्म क्या उस ने किया मर्द की ख़ातिर सदा क़ुर्बानियाँ देती रही माँ है आदमज़ाद की , क्या जुर्म है उस का यही ? वो अज़ल से प्यार की ममता की इक तस्वीर है पासदार ए आदमी