Posts

दिल खोल के तडपाना, जी भर के सितम ढाना

दिल खोल के तडपाना , जी भर के सितम ढाना आता है कहाँ तुम को बीमार को बहलाना वो नर्म निगाहों से आरिज़ 1 का दहक उठना वो लम्स 2 की गर्मी से नस नस का पिघल जाना कुछ तो है जो हर कोई मुश्ताक़ 3 -ए-मोहब्बत है बेचैन   दिमाग़ों   का   है   इश्क़   ख़लल   माना बोहतान 4 शम ' अ पर क्यूँ , ये सोज़ 5 -ए-मोहब्बत है ख़ुद अपनी ही आतिश में जल जाता है परवाना इस अब्र 6 -ए-बहाराँ से फिर झूम के मय बरसे थोडा   जो   मचल   जाए ये फ़ितरत-ए-रिन्दाना 7 लो खोल ही दी अब तो ज़ंजीर-ए-वफ़ा   मैं   ने " जिस मोड़ पे जी चाहे चुपके से बिछड़ जाना" और एक ये भी.... ऐवान-ए-सियासत 8 में क्या क्या न तमाशा हो इन बूढ़े दिमाग़ों के उफ़!!! खेल ये तिफ़्लाना 9 1- गाल , 2- स्पर्श , 3- ख़्वाहिश मंद , 4- झूटा इल्ज़ाम , 5- दर्द , 6- बादल , 7- शराबी तबीयत , 8- राजनीति के पैरोकार , 9- बचकाने dil khol ke tadpaana, jee bhar ke sitam dhaana aata hai kahaN tum ko beemar ko behlaana wo narm nigaahoN se aariz ka dahk uthna wo lams ki garmi se nas nas ka pighal jaana k

अश्क पीने को शब-ओ-रोज़ अलम1 खाने को

अश्क पीने को शब-ओ-रोज़ अलम 1 खाने को हम जिये जाते हैं नित दर्द नया पाने को ज़िन्दगी जाने कहाँ छोड़ के हम को चल दी हम ज़रा देर जो बैठे यहाँ सुस्ताने को चल पड़ी थीं जो ये दिल छोड़ के सब उम्मीदें हसरतें दूर तलक आई थीं समझाने को एक मोती जो तेरी आँख से टपका है अभी मैं कहाँ रक्खूँ अब इस क़ीमती नज़राने को आज के दौर के बच्चे भी बड़े शातिर हैं अब सुने कौन अलिफ़ लैला के अफ़साने को डाल दी है जो तअस्सुब 2 ने दिलों में अपने मुद्दतें चाहिएँ इस गाँठ के सुलझाने को जिस को कहते हैं मोहब्बत ये ज़माने वाले इक खिलौना है दिल-ए-ज़ार 3 के बहलाने को कोई भी चीज़ कभी हस्ब-ए-ज़रूरत 4 न मिली आख़िरश 5 तोड़ दिया ज़ात के पैमाने को कोई हद ही नहीं "मुमताज़" तबाही की तो फिर हम भी आमादा हैं अब हद से गुज़र जाने को 1- दुख , 2- भेद-भाव , 3- दुखी दिल , 4- ज़रूरत के मुताबिक़ , 5- आख़िरकार اشک پینے کو شب و روز الم کھانے کو ہم جئے جاتے ہیں نت درد نیا پانے کو زندگی جانے کہاں چھوڑ کے ہم کو چل دی ہم ذرا دیر جہ بیٹھے یہاں سستانے کو چل پڑی تھیں جو یہ دل چھوڑ کے سب

यारी

मेरे यार मेरा सरमाया इन जलती हुई राहों में मेरा यार है ठंडा साया ये यारी रहे सलामत ता अबद मासूम लड़कपन के वो खेल सुनहरे इस यारी में कुछ राज़ हैं गहरे गहरे अब भी दिल की गहराई में रौशन हैं मेरे यार की यारी में हैं जो लम्हे ठहरे उन लम्हों का एहसास है अशद हों जिस्म जुदा पर इन में जान वही है दो दिल हैं लेकिन धड़कन एक रही है इस सच्चे रिश्ते में सौ रंग भरे हैं साँसों की लय ने बस इक बात कही है अब हम को जुदा कर पाए बस लहद मेरा यार उजाला है मेरे जीवन का मज़बूत है कच्चा धागा इस बंधन का सब छूटे मेरे यार का साथ न छूटे है यार से रिश्ता दिल की हर धड़कन का ये बात कही है मैं ने मुस्तनद दुनिया में नुमायाँ शान ओ हशम है तेरा मेरे यार पे मेरे मौला करम हो तेरा मेरा यार सलामत है तो जहाँ में सब है मेरा यार नहीं तो क्या है जहाँ में मेरा अल मदद या इलाही अल मदद ये चाँद तारे ये दुनिया निसार हो जाए मेरी तो जान भी सदक़ा-ए-यार हो जाए अता हो अता यार की मुझ को क़ुर्बत सलामत रहे यार मेरा सलामत मैं तोड़ दूँ , हाँ तोड़ दूँ सारी हदें मैं पार कर दूँ तेरी ख़ा

फिर जाग उठा जूनून, फिर अरमाँ मचल गए

फिर   जाग   उठा   जूनून , फिर   अरमाँ   मचल   गए हम   फिर   सफ़र   के   शौक़   में   घर   से   निकल   गए मुस्तक़बिलों 1   के   ख़्वाब   में   हम   महव 2   थे   अभी और   ज़िन्दगी   के   हाथ   से   लम्हे   फिसल   गए आसाँ   कहाँ   था   क़ैद   ए   तअल्लुक़    से   छूटना वो   मुस्करा   दिया ,   कि   इरादे   बहल   गए शायद   बिखर   ही   जाती   मेरी   ज़ात   जा   ब   जा 3 अच्छा   हुआ   के   वक़्त   से   पहले   संभल   गए सूरज   से   जंग   करने   की   नादानी   की   ही   क्यूँ अब   क्या   उड़े   जूनून ,   कि   जब   पर   ही   जल   गए खोटे   खरे   कि   बाक़ी   रही   है   कहाँ   तमीज़ अब   तो   यहाँ   फ़रेब   के   सिक्के   भी   चल   गए तशकील 4   दे   के   ख़्वाब   को   हर   बार   तोडना ये   पैंतरे   नसीब   के   हम   को   तो   खल   गए छूने   चले   थे   हम ,   कि    हुआ   ख़्वाब   वो   तमाम " मुट्ठी   में   आ   न   पाए   कि   जुगनू   फिसल   गए" " मुमताज़" हम   को   जिन   कि   इबादत   पे   नाज़   था बस   इक   ज़रा   सी   आंच   से   वो   ब

दहकती आरज़ू के हाथ में ज़ुल्मत का कासा है

दहकती आरज़ू के हाथ में ज़ुल्मत का कासा है थकी बीनाई का अब बंद आँखों में बसेरा है बिखरती रौशनी की क़ैद में ये किस का साया है मेरे दिल में कोई परछाईं है , जो अब भी ज़िंदा है है सूरत जानी पहचानी , मगर दिल नाशानासा है मेरे दर पर जो साइल है , कोई तो इस से रिश्ता है न जाने क्यूँ नज़ारों से भी वहशत होती जाती है बहुत रंगीन है दुनिया , मगर हर रंग फीका है दिल ए हस्सास जाने क्यूँ तड़प जाता है रह रह कर अगर छाला नहीं कोई तो फिर ये दर्द कैसा है बना कर बुत मुझे मेरी परस्तिश कर रहे हैं सब मेरी मजबूरियों ने मुझ को ये ऐज़ाज़ बख्शा है नसीब और वक़्त ने इस पर लिखे हैं तब्सिरे कितने तबअ का मौजिज़ा देखो , वरक़ ये फिर भी सादा है निगाहों ने लगा रक्खी है पाबंदी , मगर फिर भी दरीचा खोल कर इक ख़्वाब ने चुपके से झाँका है मोहब्बत का हर इक लम्हा बहुत   दिलचस्प है माना मगर " मुमताज़ " मेरी वहशतों का रंग गहरा है    دہکتی آرزو کے ہاتھ میں ظلمت کا کاسہ ہے تھکی بینائی کا اب بند آنکھوں میں بسیرا ہے بکھرتی روشنی کی قید میں یہ کس کا سایہ ہے مرے دل میں کوئی

अजमेरी क़तए

अनवार से चमकती हैं रोज़े की जालियाँ अजमेर पर बरसती हैं ने ’ मत की बदलियाँ दिन रात बंट रहा है उतारा हुसैन का मंगते पसारे आए हैं हाजत की झोलियाँ निखरा है सुर्ख़ फूलों से ख़्वाजा का ये मज़ार ख़ुशबू से महका महका है सरकार का दयार वहदानियत का छाया है चारों तरफ ख़ुमार गाते हैं झूम झूम के ख़्वाजा के जाँ निसार ख़्वाजा पिया के रोज़े पे ज़ौ की बहार है दीदार हो गया है तो दिल को क़रार है हर ख़ास-ओ-आम लाया है नज़राना इश्क़ का सरकार ख़्वाजा जी पे ख़ुदाई निसार है ख़्वाजा पिया का इश्क़ असर मुझ पे कर गया तस्वीर-ए-ज़िन्दगी में धनक रंग भर गया ख़्वाजा पिया का नूर जो दिल में उतर गया नज़र-ए-करम से पल में मुक़द्दर सँवर गया हम को तो ख़्वाजा प्यारे की निस्बत से काम है सरकार ख़्वाजा जी का ज़माना ग़ुलाम है ऊँची है शान आप की आला मक़ाम है सारा जहाँ है मुक़्तदी ख़्वाजा इमाम है हम दास्तान-ए-ग़म जो पिया को सुनाएँगे आए हैं अश्क ले के ख़ुशी ले के जाएँगे देगा ख़ुदा मुराद जो ख़्वाजा दिलाएँगे अपनी मुराद हम तो इसी दर से पाएँगे ख़्वाजा के आस्ताने पे वहदत को नाज़ है है बेख़ुदी निसार अक़ीदत को नाज़ ह

ज़मीन-ए-दिल पे यादों का हसीं मौसम निकलता है

ज़मीन-ए-दिल पे यादों का हसीं मौसम निकलता है हमेशा होती है बारिश , जो वो एल्बम निकलता है लहू को ढालना पड़ता है मेहनत से पसीने में बड़ी मुश्किल से उलझी ज़िन्दगी का ख़म 1 निकलता है तरक़्क़ी के तक़ाज़ों के तले ऐसा दबा है वो मरीज़-ए-ज़िन्दगी का रफ़्ता रफ़्ता दम निकलता है मोहब्बत नफ़रतों में आजकल हल 2 होती जाती है लहू रिश्तों का होगा , अब ज़ुबां से सम 3 निकलता है हज़ारों वार कर कर के निचोड़ा है लहू पहले जिगर के ज़ख़्म पर मलने को अब मरहम निकलता है ज़रा एड़ी की जुम्बिश 4 से ज़मीं मुंह खोल देती है जो शिद्दत 5 तश्नगी 6 में हो , तो फिर ज़मज़म 7 निकलता है ज़रा सी बात की कितनी सफ़ाई दे रहे हैं वो मगर मतलब तो हर इक बात का मुबहम 8 निकलता है वतन के ज़र्रे ज़र्रे को पिलाया है लहू हम ने " ये रोना है कि अब ख़ून-ए-जिगर भी कम निकलता है" ये जुमला हम नहीं , अक्सर सभी एहबाब 9 कहते हैं अजी "मुमताज़" के अशआर 10 से रेशम निकलता है 1. उलझन , 2. Mix, 3. ज़हर , 4. हरकत , 5. तेज़ी , 6. प्यास , 7. मक्का में मौजूद मुसलमानों का पवित्र कुआँ , 8