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कुछ दोहे‎

धड़कन की लय थम गई , पिघला मन का प्यार सूना सारा जग हुआ , रूठा मेरा यार इतना सस्ता हो गया , इन्साँ का किरदार रिश्ते नाते खेल हैं , उल्फ़त है व्यापार कैसी उन की ईद हो , क्या उन का त्योहार बच्चे , जो करते रहे , पानी से इफ़्तार लम्हे भर ने खेंच दी , आँगन में दीवार महवर से ही हट गया , रिश्तों का आधार करते हैं कुछ लोग अब , मजहब का व्यापार जामा तो शफ़्फ़ाफ़ है , काला है किरदार तन बोझल दिल ग़मज़दा , रूह तलक बीमार जाने कब गिर जाएगी , ये लाग़र दीवार dhadkan kee lay tham gai pighla man ka pyaar  soona saara jag hua rootha mera yaar  itna sasta ho gaya insaaN ka kirdaar  rishte naate khel haiN ulfat hai byopaar  kaisi un ki eid ho, kya un ka tehwaar  bachche, jo karte rahe paani se iftaar  lamhe bhar ne khench di aangan meN diwaar  mahwar se hi hat gaya rishtoN ka aadhaar karte haiN kuchh log ab mazhab ka byopaar  jaamaa to shaffaaf hai, kaala hai kirdaar  tan bojhal dil ghamzada rooh talak bimaar jaane kab gir jaaegi yeh l

सियाही देख कर बातिन की अक्सर काँप जाते हैं

सियाही देख कर बातिन की अक्सर काँप जाते हैं इताब उट्ठे फ़लक पर , हम ज़मीं पर काँप जाते हैं तलातुम हार जाता है थके बाज़ू की क़ुव्वत से हमारे  हौसलों  से तो  समंदर  काँप  जाते  हैं इरादों को मिटा डाले , कहाँ ये ज़ोर क़िस्मत  में जुनूँ अँगडाई  लेता  है , मुक़द्दर काँप जाते  हैं ख़मीदा सर हुआ क़ातिल जो देखा हुस्न ज़ख्मों का रवानी ख़ून में वो है कि  ख़ंजर  काँप  जाते  हैं जो बेकस बेनवाओं की  फ़ुग़ाँ का शोर उठता है ज़मीन-ओ-आसमाँ के सारे  महवर काँप जाते हैं दहकती बस्तियों के  कर्ब  से  इतने  हेरासाँ हैं फ़सादों की ख़बर से क़ल्ब-ए-मुज़्तर काँप जाते हैं अली के हम फ़िदाई हैं , हमें क्या ख़ौफ़ दुनिया का " हमारा नाम आता है तो ख़ैबर   काँप  जाते  हैं" ज़मीर-ए-बेज़ुबाँ को जब कभी आवाज़ मिलती है तो फिर ' मुमताज़ ' अच्छे-अच्छे सुन कर काँप जाते हैं बातिन-अंतरात्मा , इताब-ग़ुस्सा , फ़लक-आस्मान , तलातुम-तूफ़ान , ख़मीदा-झुका हुआ , बेकस-मजबूर , बेनवा-मूक , फ़ुग़ाँ-रोना धोना , महवर-केंद्र , कर्ब-दर्द ,   हेरासाँ-डरे हुए , क़ल्ब-ए-मुज़्तर-बेचैन दिल

नज़्म -तलाश

दिलों   में   पिन्हाँ   है   अब   तक   जो   राज़ , फाश   न   कर मेरे   हबीब , मुझे   अब   कहीं   तलाश   न   कर तेरी   तलाश   का   मरकज़   ही   खो   गया   जानां हमारे   बीच   बड़ा   फ़र्क़ हो   गया   जानां तमन्ना   उलझी   है   अब   तक   इसी   तरद्दुद   में न   मुझ   को   ढून्ढ , के   अब मैं   नहीं   रही   खुद   में न   अब   वो   शोला बयानी , न   वो   गुमाँ बाक़ी वो   आग   सर्द   हुई , रह   गया   धुंआ   बाक़ी हर   एक   लम्हा   तबस्सुम   की   अब   वो   ख़ू न   रही नज़र   में   ज़ू न   रही , ज़ुल्फ़   में   ख़ुश्बू   न   रही न   हसरतों   के   शरारे , न   वो   जुनूँ ही   रहा न   तेरे   इश्क़ का   वो   दिलनशीं   फुसूँ   ही   रहा जो   मिट   चला   है   वही   हर्फ़   ए बेनिशाँ हूँ   मैं मैं   खुद   भी   ढून्ढ   रही   हूँ , के   अब   कहाँ   हूँ   मैं तलाशती   हूँ   वो   सा ' अत , जो   मैं   ने   जी   ही   नहीं मैं   तुझ   को   कैसे   मिलूँ   अब , के   मैं   रही   ही   नहीं ख़ला   ये   दिल   का   तेरे   प्यार   का   तबर्रुक  

ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल का निशाँ समझी थी मैं

ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल का निशाँ समझी थी मैं मजमा-ए-याराँ को अब तक कारवाँ समझी थी मैं खोखली थी , दीमकों ने चाट डाला था उसे शाख़ वो , जिस को कि अपना आशियाँ समझी थी मैं एक ही हिचकी में सब कर्ब-ओ-अज़ीयत मिट गई ज़िन्दगी की तल्ख़ियों को जाविदाँ समझी थी मैं मसलेहत की आँच से पल में पिघल कर रह गया वो जुनूँ जिस को अभी तक बेतकाँ समझी थी मैं जुस्तजू जब की तो पै दर पै सभी खुलते गए ज़ाविए अपनी भी हस्ती के कहाँ समझी थी मैं इस तलातुम ने बुलंदी बख़्श दी इस ज़ात को इन्क़ेलाब-ए-ज़हन-ओ-दिल को तो ज़ियाँ समझी थी मैं बन गया “मुमताज़” दुश्मन मेरी जाँ का आजकल दिल वही , जिस को कि अपना राज़दाँ समझी थी मैं   मजमा-ए-याराँ – दोस्तों का जमावड़ा , कर्ब-ओ-अज़ीयत – दर्द और तकलीफ़ , जाविदाँ - अमर , मसलेहत – दुनियादारी , बेतकाँ – न थकने वाला , जुस्तजू - तलाश , पै दर पै – step by step, ज़ाविए - पहलू , तलातुम - तूफ़ान , इन्क़ेलाब - क्रांति , ज़हन - मस्तिष्क , ज़ियाँ – नुक़सान khwaab ke manzar ko manzil ka nishaaN samjhi thi maiN majma-e-yaaraaN ko ab tak kaarwaaN samjhi thi maiN