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नज़्म -तलाश

दिलों   में   पिन्हाँ   है   अब   तक   जो   राज़ , फाश   न   कर मेरे   हबीब , मुझे   अब   कहीं   तलाश   न   कर तेरी   तलाश   का   मरकज़   ही   खो   गया   जानां हमारे   बीच   बड़ा   फ़र्क़ हो   गया   जानां तमन्ना   उलझी   है   अब   तक   इसी   तरद्दुद   में न   मुझ   को   ढून्ढ , के   अब मैं   नहीं   रही   खुद   में न   अब   वो   शोला बयानी , न   वो   गुमाँ बाक़ी वो   आग   सर्द   हुई , रह   गया   धुंआ   बाक़ी हर   एक   लम्हा   तबस्सुम   की   अब   वो   ख़ू न   रही नज़र   में   ज़ू न   रही , ज़ुल्फ़   में   ख़ुश्बू   न   रही न   हसरतों   के   शरारे , न   वो   जुनूँ ही   रहा न   तेरे   इश्क़ का   वो   दिलनशीं   फुसूँ   ही   रहा जो   मिट   चला   है   वही   हर्फ़   ए बेनिशाँ हूँ   मैं मैं   खुद   भी   ढून्ढ   रही   हूँ , के   अब   कहाँ   हूँ   मैं तलाशती   हूँ   वो   सा ' अत , जो   मैं   ने   जी   ही   नहीं मैं   तुझ   को   कैसे   मिलूँ   अब , के   मैं   रही   ही   नहीं ख़ला   ये   दिल   का   तेरे   प्यार   का   तबर्रुक  

ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल का निशाँ समझी थी मैं

ख़्वाब के मंज़र को मंज़िल का निशाँ समझी थी मैं मजमा-ए-याराँ को अब तक कारवाँ समझी थी मैं खोखली थी , दीमकों ने चाट डाला था उसे शाख़ वो , जिस को कि अपना आशियाँ समझी थी मैं एक ही हिचकी में सब कर्ब-ओ-अज़ीयत मिट गई ज़िन्दगी की तल्ख़ियों को जाविदाँ समझी थी मैं मसलेहत की आँच से पल में पिघल कर रह गया वो जुनूँ जिस को अभी तक बेतकाँ समझी थी मैं जुस्तजू जब की तो पै दर पै सभी खुलते गए ज़ाविए अपनी भी हस्ती के कहाँ समझी थी मैं इस तलातुम ने बुलंदी बख़्श दी इस ज़ात को इन्क़ेलाब-ए-ज़हन-ओ-दिल को तो ज़ियाँ समझी थी मैं बन गया “मुमताज़” दुश्मन मेरी जाँ का आजकल दिल वही , जिस को कि अपना राज़दाँ समझी थी मैं   मजमा-ए-याराँ – दोस्तों का जमावड़ा , कर्ब-ओ-अज़ीयत – दर्द और तकलीफ़ , जाविदाँ - अमर , मसलेहत – दुनियादारी , बेतकाँ – न थकने वाला , जुस्तजू - तलाश , पै दर पै – step by step, ज़ाविए - पहलू , तलातुम - तूफ़ान , इन्क़ेलाब - क्रांति , ज़हन - मस्तिष्क , ज़ियाँ – नुक़सान khwaab ke manzar ko manzil ka nishaaN samjhi thi maiN majma-e-yaaraaN ko ab tak kaarwaaN samjhi thi maiN

परिंदे अपने ख़्वाबों के तो मुस्तक़बिल में रहते हैं

परिंदे अपने ख़्वाबों के तो मुस्तक़बिल में रहते हैं क़दम राहों पे लेकिन वलवले मंज़िल में रहते हैं मुक़द्दर खेल कितने खेलता है हम से , देखो तो हमीं हल करते हैं मुश्किल हमीं मुश्किल में रहते हैं निगाहों की हरारत से भी जल जाता है हर पर्दा छुपेंगे किस तरह वह जो नज़र के तिल में रहते हैं गुनह ख़ुद अपने होने की गवाही देने लगता है लहू के दाग़ तो अक्सर कफ़-ए-क़ातिल में रहते हैं अगर हम ही न हों तो ज़ीस्त किस को आज़माएगी हमारे हौसले भी तो यहाँ हासिल में रहते हैं इन्हें भी क़त्ल करने का अमल सोचेंगे फिर कोई अगर अरमान कुछ बाक़ी दिल-ए-बिस्मिल में रहते हैं अमूमन जान दे कर भी किनारा पा ही लेती है शिकस्ता नाव के टुकड़े दबे साहिल में होते हैं तलब इंसाफ़ की बिलकुल बजा है , सोच लो लेकिन यहाँ “मुमताज़” क़ातिल भी छुपे आदिल में रहते हैं parinde apni khwaaboN ke to mustaqbil meN rahte haiN  qadam raahoN pe lekin walwale manzil meN rahte haiN  muqaddar khel kitne khelta hai ham se, dekho to hameeN hal karte haiN mushkil, hameeN mushkil meN rahte haiN nigaahoN kee hara

कभी तशवीश में रहना कभी हैराँ होना

कभी तशवीश में रहना कभी हैराँ होना इक अज़ीयत ही तो है इश्क़ में इम्काँ होना इश्क़ को ख़ुद ही समझ जाओगे , देखो तो कभी रौशनी देख के परवाने का रक़्साँ होना सहर अंगेज़ है तख़्लीक़-ए-बशर का लम्हा एक क़तरे का यूँ ही फैल के तूफाँ होना आह ! इखलास - ओ - मोहब्बत का गराँ हो जाना हाय ! इस दौर में इंसान का अर्ज़ाँ होना लुत्फ़ क्या ठहरे हुए आब में पैराकी का कितना मुश्किल है किसी काम का आसाँ होना मेरी हस्ती को समझना है तो बस यूँ समझो एक तूफ़ाँ का किसी क़तरे में पिन्हाँ होना आज के दौर की क़दरों की है ख़ूबी , कि यहाँ " आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना " जज़्ब तूफ़ान को " मुमताज़ " किया है दिल में कोई आसाँ नहीं गुलशन में बयाबाँ होना तशवीश = कशमकश , अजीअत = यातना , इम्काँ = उम्मीद , रक्सां = नाचता हुआ , सेहर अंगेज़ = जादू भरा , तख्लीक़ = रचना , क़तरा = बूँद , इखलास = सच्चाई , गरां = महंगा , अर्जां = सस्ता , पैराकी = त