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कभी तशवीश में रहना कभी हैराँ होना

कभी तशवीश में रहना कभी हैराँ होना इक अज़ीयत ही तो है इश्क़ में इम्काँ होना इश्क़ को ख़ुद ही समझ जाओगे , देखो तो कभी रौशनी देख के परवाने का रक़्साँ होना सहर अंगेज़ है तख़्लीक़-ए-बशर का लम्हा एक क़तरे का यूँ ही फैल के तूफाँ होना आह ! इखलास - ओ - मोहब्बत का गराँ हो जाना हाय ! इस दौर में इंसान का अर्ज़ाँ होना लुत्फ़ क्या ठहरे हुए आब में पैराकी का कितना मुश्किल है किसी काम का आसाँ होना मेरी हस्ती को समझना है तो बस यूँ समझो एक तूफ़ाँ का किसी क़तरे में पिन्हाँ होना आज के दौर की क़दरों की है ख़ूबी , कि यहाँ " आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना " जज़्ब तूफ़ान को " मुमताज़ " किया है दिल में कोई आसाँ नहीं गुलशन में बयाबाँ होना तशवीश = कशमकश , अजीअत = यातना , इम्काँ = उम्मीद , रक्सां = नाचता हुआ , सेहर अंगेज़ = जादू भरा , तख्लीक़ = रचना , क़तरा = बूँद , इखलास = सच्चाई , गरां = महंगा , अर्जां = सस्ता , पैराकी = त

साँसों का तार हम को तो इक जाल हो गया

साँसों का तार हम को तो इक जाल हो गया अब क्या कहें हयात का क्या हाल हो गया टुकड़ों में बंट गया है मेरा अक्स-ए-ज़ात भी ये इश्क़ दिल के शीशे पे इक बाल हो गया हिम्मत भी अब के टूट गई पर के साथ साथ मेरा जुनूँ भी अब के तो पामाल हो गया ये आईना हयात का बे आब जो हुआ घबरा के मेरा अक्स भी ब दहा ल हो गया दौर-ए-जदीद की ये इनायत भी देखिये जो रहनुमा बना वही दज्जाल हो गया दीवानों से किसी को शिकायत भी क्यूँ रहे मेरा जुनून मेरे लिए ढाल हो गया “ मुमताज़ ” ऐसी आम हुई मुफ़लिसी कि अब इंसान का ज़मीर भी कंगाल हो गया saansoN ka taar ham ko to ik jaal ho gaya  ab kya kaheN hayaat ka kya haal ho gaya  tukdoN meN bant gaya hai mera aks-e-zaat bhi  ye ishq dil ke sheeshe pe ik baal ho gaya  himmat bhi ab ke toot gai par ke saath saath mera junooN bhi ab ke to paamaal ho gaya  ye aaina hayaat ka be aab jo hua  ghabra ke mera aks bhi bad haal ho gaya  daur-e-jadeed kee ye inaayat bhi dekhiye jo rahnuma bana wahi dajjaal ho gaya  deewaanoN se kisi k

हम झेलने अज़ीज़ों का हर वार आ गए

हम झेलने अज़ीज़ों का हर वार आ गए सीना ब सीना बर सर-ए-पैकार आ गए ऐ ज़िन्दगी ख़ुदारा हमें अब मुआफ़ कर हम तो तेरे सवालों से बेज़ार आ गए तमसील दुनिया देती थी जिन के खुलूस की उन को भी दुनियादारी के अतवार आ गए यारो सितम ज़रीफ़ी तो क़िस्मत की देखिये कश्ती गई तो हाथों में पतवार आ गए घबरा गए हैं अक्स की बदसूरती से अब हम आईनों के शहर में बेकार आ गए आवारगी का लुत्फ़ भी अब तो हुआ तमाम अब तो सफर में रास्ते हमवार आ गए पुरसिश ज़मीर की न हुई जब जहान में “ मुमताज़ ” हम भी बेच के दस्तार आ गए   ham jhelne azizoN ka har waar aa gaye seena b seena bar sar e paikaar aa gaye aye zindagi khudaara hameN ab muaaf kar ham to tere sawaaloN se bezaar aa gaye tamseel duniya deti thi jin ke khuloos kee un ko bhi duniya daari ke atwaar aa gaye yaaro, sitam zareefi to qismat kee dekhiye kashti gai to haathoN meN patwaar aa gaye ghabra gaye haiN aks kee badsoorti se ab ham aainoN ke shahr meN bekaar aa gaye aawaargi ka lutf bhi ab to hua tamaam ab to safar meN raaste hamw

हर तमन्ना को आब देती हूँ

हर तमन्ना को आब देती हूँ ज़ब्त को इन्क़ेलाब देती हूँ तश्नगी को सराब देती हूँ आस को इज़्तेराब देती हूँ ज़िंदगी की किताब ख़ाली है आरज़ू का निसाब देती हूँ फिर मोहब्बत सवाल करती है फिर वफ़ा का हिसाब देती हूँ ज़िंदगी के अधूरे पैकर को लम्हा-ए-कामयाब देती हूँ दिन से चुनती हूँ यास की किरनें शब को सौ आफ़ताब देती हूँ ज़िंदगी की उदास आँखों को फिर वो “मुमताज़” ख़्वाब देती हूँ har tamanna ko aab deti huN zabt ko inqelaab deti huN tashnagi ko saraab deti huN aas ko izteraab deti huN din se chunti huN yaas kee kirneN shab ko sau aaftaab deti huN zindagi kee kitaab khaali hai aarzoo ka nisaab deti huN phir mohabbat sawaal karti hai phir wafaa ka hisaab deti huN zindagi ke adhoore paikar ko lamha-e-kaamyaab deti huN zindagi kee udaas aankhoN ko phir wo "Mumtaz" khwaab deti huN 

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे इक इनायत से मेरे ख़्वाब बहल सकते थे तू ने चाहा ही नहीं वरना कभी तो जानां मेरे टूटे हुए अरमाँ भी निकल सकते थे तुम को जाना था किसी और ही जानिब , माना दो क़दम फिर भी मेरे साथ तो चल सकते थे काविशों में ही कहीं कोई कमी थी वरना ये इरादे मेरी क़िस्मत भी बदल सकते थे रास आ जाता अगर हम को अना का सौदा ख़्वाब आँखों के हक़ीक़त में भी ढल सकते थे हम को अपनी जो अना का न सहारा मिलता लड़खड़ाए थे क़दम यूँ कि फिसल सकते थे इस क़दर सर्द न होती जो मेरे दिल की फ़िज़ा आरज़ूओं के ये अशजार भी फल सकते थे ये तो अच्छा ही हुआ बुझ गई एहसास की आग वरना आँखों में सजे ख़्वाब भी जल सकते थे हार बैठे थे तुम्हीं हौसला इक लग़्ज़िश में हम तो "मुमताज़" फिसल कर भी सँभल सकते थे tashnagi ko to saraaboN se bhi chhal sakte the  ik inaayat se mere khwaab bahal sakte the  tu ne chaahaa hi nahiN warna kabhi to jaanaaN mere toote hue armaaN bhi nikal sakte the  tum ko jaana tha kisi aur hi jaanib maanaa do qadam phir bhi mere saath to c

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं ढूंढती रहे “ मुमताज़ ” अब हमें सियहबख़्ती दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं hausle ghamoN ke ham yuN bhi aazmaate haiN khilkhilaate lamhoN se zindagi churaate haiN koi khwaab bhi ham ko dhundne n aa paaye naqsh ab ke paaoN ke ham mitaate jaate haiN khoob ham samajhte haiN rahnuma kee sab chaaleN jaan boojh kar aksar ham fareb khaate haiN raushni to kya hogi jhilmilaate ashkoN se in rawaaN charaaghoN ko aaj ham bujhaate haiN daastaaN meN to un ka zikr tak nahiN aaya un ko kya hua aakhir, aankh ky

ख़ुशी के ख़ैर मक़दम में, ग़मों को आज़माने में

ख़ुशी के ख़ैर मक़दम में , ग़मों को आज़माने में बहुत तकलीफ़ होती है हमें अब मुस्कराने में वफ़ा के कोह से हस्ती में जू-ए-शीर लाने में रहे मसरूफ़ हम अब तक मुक़द्दर आज़माने में हमें अपने तज़बज़ुब से अगर राहत नहीं होगी गुज़र जाएँगी सदियाँ उस को हाल अपना बताने में मेरे मालिक , तेरे साइल का है दामन तही अब तक ज़रा बतला तो दे मुझ को , कमी क्या है ख़ज़ाने में वो लम्हा जिस में सा री ज़िन्दगी की वुसअतें गुम थीं ज़माना लग गया हम को वो इक लम्हा चुराने में शिकस्त-ओ-फ़तह का ये खेल भी क्या खेल है यारो मज़ा आता है अक्सर जीत कर भी हार जाने में कहीं आग़ोश-ए-तुरबत में हयात-ए-दायमी भी है कहीं है ज़िन्दगी अटकी नफ़स के ताने बाने में कभी तो हसरतों के दाम से "मुमताज़" हम छूटें बँटी जाती है हस्ती हसरतों के ख़ाने ख़ाने में