Posts

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे

तश्नगी को तो सराबों से भी छल सकते थे इक इनायत से मेरे ख़्वाब बहल सकते थे तू ने चाहा ही नहीं वरना कभी तो जानां मेरे टूटे हुए अरमाँ भी निकल सकते थे तुम को जाना था किसी और ही जानिब , माना दो क़दम फिर भी मेरे साथ तो चल सकते थे काविशों में ही कहीं कोई कमी थी वरना ये इरादे मेरी क़िस्मत भी बदल सकते थे रास आ जाता अगर हम को अना का सौदा ख़्वाब आँखों के हक़ीक़त में भी ढल सकते थे हम को अपनी जो अना का न सहारा मिलता लड़खड़ाए थे क़दम यूँ कि फिसल सकते थे इस क़दर सर्द न होती जो मेरे दिल की फ़िज़ा आरज़ूओं के ये अशजार भी फल सकते थे ये तो अच्छा ही हुआ बुझ गई एहसास की आग वरना आँखों में सजे ख़्वाब भी जल सकते थे हार बैठे थे तुम्हीं हौसला इक लग़्ज़िश में हम तो "मुमताज़" फिसल कर भी सँभल सकते थे tashnagi ko to saraaboN se bhi chhal sakte the  ik inaayat se mere khwaab bahal sakte the  tu ne chaahaa hi nahiN warna kabhi to jaanaaN mere toote hue armaaN bhi nikal sakte the  tum ko jaana tha kisi aur hi jaanib maanaa do qadam phir bhi mere saath to c

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं

हौसले ग़मों के हम यूँ भी आज़माते हैं खिलखिलाते लम्हों से ज़िन्दगी चुराते हैं कोई ख़्वाब भी हम को ढूँढने न आ पाए नक़्श अब के पाओं के हम मिटाते जाते हैं ख़ूब हम समझते हैं रहनुमा की सब चालें जान बूझ कर अक्सर हम फ़रेब खाते हैं रौशनी तो क्या होगी झिलमिलाते अश्कों से इन रवाँ चराग़ों को आज हम बुझाते हैं दास्ताँ में तो उन का ज़िक्र तक नहीं आया उन को क्या हुआ आख़िर आँख क्यूँ चुराते हैं दिल के इस बयाबाँ में कोई तो नहीं आता आज फिर यहाँ किस के साए सरसराते हैं ढूंढती रहे “ मुमताज़ ” अब हमें सियहबख़्ती दास्ताँ अधूरी हम अब के छोड़ जाते हैं hausle ghamoN ke ham yuN bhi aazmaate haiN khilkhilaate lamhoN se zindagi churaate haiN koi khwaab bhi ham ko dhundne n aa paaye naqsh ab ke paaoN ke ham mitaate jaate haiN khoob ham samajhte haiN rahnuma kee sab chaaleN jaan boojh kar aksar ham fareb khaate haiN raushni to kya hogi jhilmilaate ashkoN se in rawaaN charaaghoN ko aaj ham bujhaate haiN daastaaN meN to un ka zikr tak nahiN aaya un ko kya hua aakhir, aankh ky

ख़ुशी के ख़ैर मक़दम में, ग़मों को आज़माने में

ख़ुशी के ख़ैर मक़दम में , ग़मों को आज़माने में बहुत तकलीफ़ होती है हमें अब मुस्कराने में वफ़ा के कोह से हस्ती में जू-ए-शीर लाने में रहे मसरूफ़ हम अब तक मुक़द्दर आज़माने में हमें अपने तज़बज़ुब से अगर राहत नहीं होगी गुज़र जाएँगी सदियाँ उस को हाल अपना बताने में मेरे मालिक , तेरे साइल का है दामन तही अब तक ज़रा बतला तो दे मुझ को , कमी क्या है ख़ज़ाने में वो लम्हा जिस में सा री ज़िन्दगी की वुसअतें गुम थीं ज़माना लग गया हम को वो इक लम्हा चुराने में शिकस्त-ओ-फ़तह का ये खेल भी क्या खेल है यारो मज़ा आता है अक्सर जीत कर भी हार जाने में कहीं आग़ोश-ए-तुरबत में हयात-ए-दायमी भी है कहीं है ज़िन्दगी अटकी नफ़स के ताने बाने में कभी तो हसरतों के दाम से "मुमताज़" हम छूटें बँटी जाती है हस्ती हसरतों के ख़ाने ख़ाने में

मे'राज की जानिब ये सफ़र किस के लिए है

मे ' राज की जानिब ये सफ़र किस के लिए है अफ़लाक की दीवार में दर किस के लिए है कौसर की ये शफ़्फ़ाफ़ नहर किस के लिए है महशर में शफ़ाअत की ख़बर किस के लिए है किस नूर के क़दमों में बिछे हैं ये सितारे ताबानी-ए-ख़ुर्शीद-ओ-क़मर किस के लिए है अल्लाह की रहमत प जो कामिल है यक़ीं तो फिर सदफ़-ए-निगह में ये गोहर किस के लिए है बख़्शी है हमें रब ने ये अनमोल विरासत क़ुरआन के जैसा वो बशर किस के लिए है है कौन तलबगार तेरा अर्श-ए-बरीं पर " ऐ नर्गिस-ए-जानाँ ये नज़र किस के लिए है " ये फ़र्श-ओ-फ़लक , नज्म-ओ-क़मर , हूर-ओ-मलाइक सब कुछ तो है ' मुमताज़ ', मगर किस के लिए है ME'RAAJ KI JAANIB YE SAFAR KIS KE LIYE HAI AFLAAK KI DIWAAR ME'N DAR KIS KE LIYE HAI KAUSAR KI YE SHAFFAF NAHR KIS KE LIYE HAI MAHSHAR ME'N SHAFAA'AT KI KHABAR KIS KE LIYE HAI KIS NOOR KE QADMO'N ME'N BICHHE HAI'N YE SITAARE TAABAANI E KHURSHEED O QAMAR KIS KE LIYE HAI ALLAH KI REHMAT PA JO KAAMIL HAI YAQEE'N TO PHIR SADAF E NIGA

अपने जज़्बात की तुगियानी से उलझा न करो

अपने   जज़्बात   की   तुगियानी से   उलझा   न   करो जानलेवा   है   ये   चाहत , उसे   चाहा   न   करो अपने   अन्दर   के   बयाबानों   में   खोया   न   करो " इतना   गहरा   मेरी   आवाज़   से   पर्दा   न   करो" मैं   तो   इक   टूटा   हुआ   ख़्वाब   हूँ , मेरा   क्या   है मेरे   बारे   में   कभी   ग़ौर   से   सोचा   न   करो मार   डालेगा   तमन्नाओं   का   बेसाख्तापन             इतनी   बेचैन   तमन्नाओं   को   यकजा    न   करो ज़ब्त   का   बाँध   जो   टूटा   तो   बहा   लेगा   तुम्हें दिल   में   उठते   हुए   तूफ़ानों   को   रोका   न   करो बड़ी   मुश्किल   से   चुरा   पाई   हूँ   इन   से   ख़ुद   को सर   पटकते   हुए   सन्नाटों   का   चर्चा   न   करो खो   न   जाओ   कहीं   फिर   अपनी   ही   तारीकी   में   दश्त ए तन्हाई   में   शब्   भर   यूँ   ही   भटका   न   करो रोशनी   चुभती   है   "मुमताज़" अभी   आँखों   में   आज   रहने   दो   ये   तारीकी , उजाला   न   करो apne jazbaat ki tughiyaani meN uljha na karo jaan lewa hai ye chaahat, use

ये राहतों में पिघलती सी बेकली क्यूँ है

ये राहतों में पिघलती सी बेकली क्यूँ है अजीब फाँस सी दिल में चुभी हुई क्यूँ है न मुनहसिर है अमल पर , न हौसलों की बिसात यहाँ नसीब की मोहताज हर ख़ुशी क्यूँ है ज़रा सी धूप भी लग जाए तो ये जल जाए ये शोहरतों का जहाँ इतना काग़ज़ी क्यूँ है ये क़ुर्बतों में अजब फ़ासला सा कैसा है बसा है रूह में , फिर भी वो अजनबी क्यूँ है जो मुझ को सुननी थी , लेकिन कही नहीं तुम ने बिछड़ते वक़्त भी वो बात फिर कही क्यूँ है हर एक सिम्त खिज़ाओं का सर्द मौसम है ये दिल की शाख़ तमन्ना से फिर लदी क्यूँ है मचलती ख़ुशियाँ हैं , हर सिम्त राहतें हैं तो फिर तेरी निगाह में "मुमताज़" ये नमी क्यूँ है ye raahtoN meN pighalti si bekali kyuN hai ajeeb phaans si dil meN chubhi hui kyun hai na munhasir hai amal par, na hauslon ki bisaat yahaN naseeb ki mohtaaj har khushi kyuN hai zara si dhoop bhi lag jaae to ye jal jaae ye shohratoN ka jahaN itna kaaghzi kyuN hai ye qurbatoN men ajab faasla sa kaisa hai basaa hai rooh meN, phir bhi wo ajnabee kyun hai jo m

तेरी ये बेनियाज़ी फिर ज़रा बदनाम हो जाए

तेरी ये बेनियाज़ी फिर ज़रा बदनाम हो जाए मेरी महरूमियों का आज चर्चा आम हो जाए कहाँ जाए तबाही , वहशतों का हश्र फिर क्या हो मेरी किस्मत की हर साज़िश अगर नाकाम हो जाए अँधेरा है , सफ़र का कोई अंदाज़ा नहीं होता किधर का रुख़ करूँ , शायद कोई इल्हाम हो जाए हया की वो अदा अब हुस्न में पाई नहीं जाती निगाहों की तमाज़त से जो गुल अन्दाम हो जाए दर-ए-रहमत प् हर उम्मीद कब से सर-ब-सजदा है तेरी बस इक नज़र उट्ठे , हमारा काम हो जाए वफ़ा की राह में ये भी नज़ारा बारहा देखा जलें पर शौक़ के , लेकिन जुनूँ बदनाम हो जाए नज़र "मुमताज़" उठ जाए तो दुनिया जगमगा उट्ठे नज़र झुक जाए वो , तो पल के पल में शाम हो जाए   teri ye beniyaazi phir zara badnaam ho jaaey meri mahroomiyon ka aaj charcha aam ho jaaey kahaN jaaey tabaahi, wahshatoN ka hashr phir kya ho miri qismat ki har saazish agar nakaam ho jaaey andhera hai, safar ka koi andaaza nahin hota kidhar ka rukh karun, shaayad koi ilhaam ho jaaey hayaa ki wo adaa ab husn men paai nahin jaati nigaahon ki t