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ख़ाक हो जाउंगी माना कि बिखर जाऊँगी

ख़ाक हो जाउंगी माना कि बिखर जाऊँगी मलगुजे वक़्त में कुछ रंग तो भर जाऊँगी   जलते सहराओं से कर रक्खी है यारी मैं ने प्यास के सामने अब सीना सिपर जाऊँगी   एक इक कर के अलग हो गईं राहें सब की और मैं सोच रही हूँ कि किधर जाऊँगी हद्द - ए - बीनाई मेरे साथ ही चलती है मगर जुस्तजू में तेरी ता हद्द - ए - नज़र जाऊँगी   जाने किस रूप में अब वक़्त मुझे ढालेगा मैं जो टूटी हूँ तो कुछ और सँवर जाऊँगी दिल के वीराने में उतरे हैं ग़मों के साए तीरगी फैलेगी कुछ और तो डर जाऊँगी   बारहा उभरूँगी मैं इक नए सूरज की तरह " कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगी " बढ़ता जाएगा जो " मुमताज़ " ये वहशत का हिसार डर के ख़ुद अपने अँधेरों में उतर जाऊँगी   خاک   ہو   جاؤنگی, مانا   کہ   بکھر   جاؤنگی ملگجے   وقت   میں   کچھ   رنگ   تو   بھر   جاؤنگی جلتے   صحراؤں   سے   کر   رکھی    ہے   یاری   میں   نے پیاس   کے   سامنے   اب   سینہ   سپر   جاؤنگ

परों की कह्कशाओं तक रसानी देखते जाओ

परों की कह्कशाओं तक रसानी देखते जाओ जुनूँ की आँधियों पर हुक्मरानी देखते जाओ बिखरती है जो माज़ी की निशानी , देखते जाओ कभी अजदाद की कुटिया पुरानी देखते जाओ बरहना शाख़ पर हसरत की इक कोंपल उभरती है ख़िज़ाँ पर कैसे आती है जवानी , देखते जाओ मकीं है मुफ़लिसी अब उस हवेली की फ़सीलों में तो अब गिरती हैं क़दरें खानदानी , देखते जाओ अभी तक तो किताब - ए - ज़ीस्त के औराक़ सादा हैं लिखेगा वक़्त इन पर क्या कहानी , देखते जाओ निज़ाम - ए - तख़्त - ए - शाही पारा पारा है , मगर फिर भी अमीर - ए - शहर की ये लन्तरानी देखते जाओ मेरी गुफ़्तार की बेबाकी से तुम को शिकायत थी " कफ़न सरकाओ , मेरी बेज़ुबानी देखते जाओ " क़लम में बहते दरियाओं ने डेरा डाल रक्खा है जो है " मुमताज़ " शेरों में रवानी , देखते जाओ پروں   کی   کہکشاؤں   تک   رسانی   دیکھتے   جاؤ جنوں   کی   آندھیوں   پر   حکمرانی   دیکھتے   جاؤ بکھرتی   ہے   جو   ماضی   کی   ن

आदमीयत का क़त्ल

जब भी माँ की कोख में होता है दूजी माँ का ख़ूँ आदमीअत काँप उठती है ,   लरज़ता है सुकूँ आज जब देखा तो दिल के टुकड़े टुकड़े कर गए ये अजन्मे जिस्म ख़ाक-ओ-खून में लिथड़े हुए काँप उठता है जिगर इंसान के अंजाम पर आदमीअत की हैं लाशें बेटियों के नाम पर मारते हैं माओं को , बदकार हैं , शैतान हैं कौन वो बदबख़्त हैं , इन्सां हैं या हैवान हैं देख कर ये हादसा , बेचैन हूँ , रंजूर हूँ और फिर ये सोचने के वास्ते मजबूर हूँ कोख में ही क़त्ल का ये हुक्म किस ने दे दिया जो अभी जन्मी नहीं थी , जुर्म क्या उस ने किया मर्द की ख़ातिर सदा क़ुरबानियाँ देती रही आदमी की माँ है वो , क्या जुर्म है उस का यही ? मामता की , प्यार की , इख़लास की मूरत है वो क्यूँ उसे तुम क़त्ल करते हो , कोई आफ़त है वो ? हर सितम सह कर भी अब तक करती आई है वफ़ा जब से आई है ज़मीं पर क्या नहीं उस ने सहा जब वो छोटी थी तो उस को भाई की जूठन मिली खिल न पाई जो कभी , है एक ये ऐसी कली उस को पैदा करने का एहसाँ अगर उस पर किया इस के बदले ज़िन्दगी का हक़ भी उस से ले लिया बिक गई कोठों पे , आतिश का निवाला बन गई इज़्ज़