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मेरे वजूद को ग़म ज़िन्दगी का खा लेगा

मेरे   वजूद   को   ग़म   ज़िन्दगी   का   खा   लेगा तेरा   ख़याल   मुझे   कब   तलक   संभालेगा करुँगी   दफ़्न मैं   हसरत   को   दिल   की   तह   में   कहीं ये   आग   सीने   में   वो   भी   कहीं   दबा   लेगा कभी   तो   ख़ून   तमन्ना   का   रंग   लाएगा कभी   तो   जोश-ए-जुनूँ मंज़िलों   को   पा   लेगा मैं   मुन्तज़िर   तो हूँ , लेकिन   कभी   पता   तो   चले मेरा   नसीब   मुझे   और   कितना   टालेगा लडेगा   क्या   शब-ए-तारीक से   दिया , लेकिन गुज़रने   वाला   कोई   शमअ    तो   जला   लेगा ख़ज़ाना   ढूँढने   वाले   कभी   तो   ख़ुद   में   उतर समन्दरों   की   तहें   कब   तलक   खंगालेगा उलझना   चाहे   मेरे   दिल   की   आग   से   अक्सर " मैं   चूक   जाऊं   तो   वो   उंगलियाँ   जला   लेगा" कोई   जूनून   न   हसरत , बचा है   क्या मुझ   में   मुझे   वजूद   में   ' मुमताज़ ' कौन   ढालेगा mere wajood ko gham zindagi ka kha lega tera khayaal mujhe kab talak sambhaalega karungi dafn maiN hasrat ko dil ki tah meN kahiN ye aag seene

वही आवारगी होती, वही फिर बेख़ुदी होती

वही आवारगी होती , वही फिर बेख़ुदी होती नज़र की एक जुम्बिश से तमन्ना फिर नई होती कभी झुकतीं , कभी उठतीं , कभी इठला के लहरातीं मज़ा आता जो राहों में कहीं कुछ तो कजी होती सुलगते वाहमों के कितने ही दर बंद हो जाते कभी मेरी सुनी होती , कभी अपनी कही होती नहीं उतरा कोई दिल के अँधेरों में कभी वरना ग़ुरूर-ए-ज़ात की सारी हक़ीक़त खुल गई होती मेरी दुनिया न होती , वो तुम्हारा ही जहाँ होता कहीं तो कुछ ख़ुशी होती , कहीं तो दिलकशी होती हिसार-ए-ज़ात का हर गोशा गोशा जगमगा उठता जहाँ तक तेरा ग़म होता वहीं तक ज़िंदगी होती ज़मीन-ए-दिल के मौसम का बदलना भी ज़रूरी था कभी दिन तो कभी “ मुमताज़ ” कुछ तीरा शबी होती  

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है

दिल तुम्हें ख़ुद ही बता देगा कि रग़बत क्या है पूछते क्या हो मेरी जान मोहब्बत क्या है है मयस्सर जिसे सब कुछ वो भला क्या समझे किसी मुफ़लिस से ये पूछो कि ज़रूरत क्या है कोई अरमाँ न रहा दिल में तो क्या देंगे जवाब पूछ बैठा जो ख़ुदा हम से कि हाजत क्या है हुस्न है , प्यार है , ईसार का इक दरिया है कोई समझा ही कहाँ है कि ये औरत क्या है दर ब दर बेचती फिरती है जो बाज़ारों में इक तवायफ़ से ज़रा पूछो कि अस्मत क्या है मेरा महबूब उठा रूठ के पहलू से मेरे कोई बतलाए कि अब और क़यामत क्या है कहकशाँ डाल दी क़दमों में ख़ुदा ने मेरे दर ब दर फिरने की “मुमताज़” को हाजत क्या है

ख़्वाब हैं आँखों में कुछ, दिल में धड़कता प्यार है

ख़्वाब   हैं   आँखों   में   कुछ , दिल   में   धड़कता   प्यार   है हाँ   हमारा   जुर्म   है   ये , हाँ   हमें   इक़रार   है मसलेहत   की   शर   पसंदी   किस   क़दर   ऐयार   है " देखिये   तो   फूल   है   छू   लीजिये   तो   ख़ार   है" रहबरान-ए-क़ौम    से   अब   कोई   तो   ये   सच   कहे इस   सदी   में   क़ौम   का   हर   आदमी   बेदार   है सुगबुगाहट   हो   रही   है   आजकल   बाज़ार   में मुफ़लिसी   की   हो   तिजारत   ये   शजर   फलदार   है सुर्ख़रू   है   फितनासाज़ी रूसियाह   है   इंतज़ाम मुल्क   की   बूढी   सियासत   इन   दिनों   बीमार   है हमलावर   रहती   हैं   अक्सर   नफ़्स   की   कमज़ोरियाँ जाने   कब   से   आदमीयत   बर   सर-ए-पैकार   है हो   गया   पिन्दार   ज़ख़्मी   खुल   गया   सारा   भरम क़ौम   को   जो   बेच   बैठा , क़ौम   का   सरदार   है हाँ   तुम्हीं   सब   से   भले   हो , जो   करो   वो   ठीक   है हैं   बुरे   "मुमताज़" हम   ही , हम   को   कब   इनकार   है

वफ़ा के अहदनामे में हिसाब-ए-जिस्म-ओ-जाँ क्यूँ हो

वफ़ा के अहदनामे में हिसाब - ए - जिस्म - ओ - जाँ क्यूँ हो बिसात - ए - इश्क़ में अंदाज़ा - ए - सूद - ओ - ज़ियाँ क्यूँ   हो मेरी परवाज़ को क्या क़ैद कर पाएगी हद कोई बंधा हो जो किसी हद में वो मेरा आसमाँ क्यूँ हो सहीफ़ा हो कि आयत हो हरम हो या सनम कोई कोई दीवार हाइल मेरे उस के दर्मियाँ क्यूँ हो तअस्सुब का दिलों   की सल्तनत में काम ही क्या है मोहब्बत की ज़मीं पर फितनासाज़ी हुक्मराँ क्यूँ हो सरापा आज़माइश तू सरापा हूँ गुज़ारिश मैं तेरी महफ़िल में आख़िर बंद मेरी ही ज़ुबाँ क्यूँ हो जहान-ए-ज़िन्दगी से ग़म का हर नक़्शा मिटाना है ख़ुशी महदूद है , फिर ग़म ही आख़िर बेकराँ क्यूँ हो ये है सय्याद की साज़िश वगरना क्या ज़रूरी है “गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियाँ क्यूँ हो” हमें हक़ है कि हम ख़ुद को किसी भी शक्ल में ढालें हमारी ज़ात से ' मुमताज़ ' कोई बदगुमाँ क्यूँ   हो

आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए

आँखों में तीर बातों में ख़ंजर लिए हुए बैठा है कोई शिकवों का दफ़्तर लिए हुए शीशागरी का शौक़ मुझे जब से हुआ है दुनिया है अपने हाथों में पत्थर लिए हुए जाने कहाँ कहाँ से गुज़रते रहे हैं हम आवारगी फिरी हमें दर दर लिए हुए लगता है चूम आई है आरिज़ बहार के आई नसीम-ए-सुबह जो अंबर लिए हुए क्या क्या सवाल लरज़ाँ थे उस की निगाह में लौट आए हम वो आख़िरी मंज़र लिए हुए दिल में धड़कते प्यार की अब वुसअतें न पूछ क़तरा है बेक़रार समंदर लिए हुए “मुमताज़” संग रेज़े भी अब क़ीमती हुए बैठे हैं हम निगाहों में गौहर लिए हुए

झूटी बातों पर रोया सच

झूटी   बातों   पर   रोया   सच हर   बाज़ी   में   जब   हारा   सच कुछ   तो   मुलम्मा   इस   पे   चढाओ बेक़ीमत   है   ये   सादा   सच झूठ   ने   जब   से   पहनी   सफेदी छुपता   फिरता   है   काला   सच अब   है   हुकूमत   झूठ   की   लोगो दर   दर   भटके   बंजारा   सच सच   सुनने   की   ताब   न   थी   तो क्यूँ   आख़िर   तुम   ने   पूछा   सच बन   जाए   जो   वजह   ए तबाही " बेमक़सद   है   फिर   ऐसा   सच" मिसरा   क्या   "मुमताज़ " मिला   है हम   ने   लफ़्ज़ों   में   ढाला   सच jhooti baatoN par roya sach har baazi meN jab haara sach kuchh to mulamma is pe chadhaao beqeemat hai ye saada sach jhoot ne jab se pahni safedi chhupta phirta hai kalaa sach ab hai hukoomat jhoot ki logo dar dar bhatke banjaara sach sach sunne ki taab na thi to kyuN aakhir tum ne poochha sach ban jaae jo wajh e tabaahi "bemaqsad hai phir aisa sach" misra kya "Mumtaz" mila hai ham ne lafzoN meN dhaala sach