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ज़र्ब सदमों की पड़ेगी तो सँवर जाएँगे

ज़र्ब सदमों की पड़ेगी तो सँवर जाएँगे ज़ख़्म के रंग ज़रा और निखर जाएँगे हम सफ़र सारे घरौंदों की तरफ़ चल निकले और हम सोच रहे हैं कि किधर जाएँगे वो मोहब्बत, वो तेरा लुत्फ़-ओ-करम और ख़ुलूस हम ये सरमाया तेरी राह में धर जाएँगे अपनी सोचो कि जो बिछड़े तो कहाँ जाओगे हम तो ख़ुशबू हैं फ़ज़ाओं में बिखर जाएँगे सिर्फ़ रह जाएँगे कुछ नक़्श हमेशा के लिए ज़ख़्म तो ज़ख़्म हैं, कुछ रोज़ में भर जाएँगे हर किसी नफ़्स को चखनी है क़ज़ा की लज़्ज़त हम भी "मुमताज़" किसी रोज़ गुज़र जाएँगे

क़स्द-ए-जाँ टूट गया, एहद-ए-वफ़ा टूट गया

क़स्द - ए - जाँ टूट   गया , एहद - ए - वफ़ा   टूट   गया एक ही ज़र्ब में मिटटी का   ख़ुदा   टूट   गया आँख   में   चुभने   लगीं   किरचें   तो   एहसास   हुआ ख़्वाब   के   साथ   मेरा   ख़्वाब नुमा   टूट   गया वक़्त   की   चाल   में   दुनिया   ही   उजड़   जाती   है क्या   हुआ   तेरा   जो   इक   ख़्वाब   ज़रा   टूट   गया दिल   से   हम   खेला   किये   थे , तो   यही   होना   था आइना   छूट   के   हाथों   से   गिरा , टूट   गया ज़लज़ला आया था इस आलम ए हस्ती में जो कल एहतेसाब इस का ज़रूरी है कि क्या टूट गया अब   करें   भी   तो   तबाही   का   गिला   किस   से   करें रेत का   घर   हुआ   सैलाब ज़दा , टूट   गया साथ   था   भीगी   रुतों में   तो   हर   इक   एहद - ए - वफ़ा तपते   सहराओं   में   इक़रार   तेरा   टूट   गया उस   के   हाथों   से   कहाँ   छूटी थी   जज़्बात   की   डोर मेरे   हाथों   में   जो   था   वो   ही   सिरा   टूट   गया आज   फ़ुर्सत   है   तो   कुछ   सैर   ज़रा   बातिन   की जायज़ा लेने   दे   क्या   बाक़ी   है , क्या   टूट  

हर आरज़ू को लूट लिया ऐतबार ने

हर     आरज़ू     को     लूट   लिया   ऐतबार   ने पहुँचा   दिया   कहाँ   ये   वफ़ा   के   ख़ुमार   ने मुरझाए   गुल ,   तो   ज़ख़्म   खिलाए   बहार ने "दहका   दिया   है   रंग-ए-चमन   लालाज़ार   ने" पलकों में भीगा प्यार भी हम को न दिख सका आँखों   को   ऐसे   ढाँप   लिया   था   ग़ुबार   ने क्या   दर्द   है   ज़ियादा   जो   रोया   तू   फूट कर पूछा   है   आबलों   से   तड़प   कर   ये   ख़ार   ने किरदार     आब   आब     शिकारी   का     हो   गया कैसी     नज़र     से   देख   लिया   है   शिकार   ने गोशों   में   रौशनी   ने       कहाँ   दी   हैं   दस्तकें "मुमताज़"   तीरगी   भी      अता   की   बहार   ने

बनी जाती है नाहक़ ज़िद तेरी यलग़ार का बाइस

बनी   जाती   है   नाहक़ ज़िद   तेरी   यलग़ार का   बाइस यक़ीं हद   से   ज़ियादा बन   न   जाए   हार   का   बाइस अना   ने   ज़हन की   ज़रखेज़   मिट्टी   में   जो   ज़िद   बोई ज़रा   सा   मस ' अला   फिर   बन   गया   तक़रार का   बाइस ग़ुरूर ईमान   ने   फ़िरऔनियत    का   बारहा   तोडा लहू   फिर   बन   गया   नापाकी   ए   ज़ुन्नार का   बाइस ज़माना   अडचनें   हाइल करे   अब   लाख   राहों   में मेरा   रद्द   ए   अमल   होगा   मेरी   रफ़्तार   का   बाइस ज़माने   से   गिला   कैसा , मुक़द्दर   से   शिकायत   क्या " अमल   मेरा   बना   है   ख़ामी   ए   किरदार   का   बाइस " हुई   है   रेज़ा   रेज़ा   ज़ात   तो   आवाज़   आई   है शिकस्त - ए - दिल   बना   " मुमताज़ " इस   झंकार   का   बाइस بنی   جاتی   ہے   ناحق   ضد   تری   یلغار   کا   باعث   یقین   حد   سے   زیادہ   بن   نہ   جائے   ہار   کا   باعث   انا   نے   ذہن   کی   زرخیز   مٹی   میں   جو   ضد   بوئی   ذرا   سا   مس الہ   پھر   بن   گیا   تقرار   کا   باعث   غرور